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सामाजिक विनाश और उन्नति रोधक राजनीतिक चालों से निबटने के लिए भारतीय श्रमिकों को क्रांतिकारी समाजवादी कार्यक्रम की ज़रूरत

मंगलवार व बुधवार को करोड़ों कार्यकर्ता व युवा भाजपा सरकार की समाज विनाशक “पूंजीवाद-समर्थक” नीतियों के खिलाफ 48 घंटों की अखिल भारतीय हड़ताल में हिस्सा लेंगे। इस हड़ताल का आवाहन सरकार की बर्बर सख्त नीतियों, निजीकरण, कच्ची नौकरियों को बढ़ावा, पर्यावरण और कार्यस्थल पर सुरक्षा मानकों की अनदेखी, अमीर और बड़े व्यवसायों के लिए कर में कटौती और छोटे श्रमिकों और ग्रामीण गरीबोंपर करों में वृद्धि के बोझ के खिलाफ़ किया गया है।

वर्ल्ड सोशलिस्ट वेब साइट भाजपा सरकार से टक्कर लेने के लिए श्रमिकों द्वारा किसी भी जोखिम जैसे वित्तीय बलिदान और यहां तक कि गोलीबारी का सामना करने को भी तैयार रहने के दृढ़ निश्चय का स्वागत करती है।

अरबपति कुलीन वर्गों ने जैसे कि अनिल और मुकेश अंबानी, गौतम अदानी व कई अन्यों ने नरेंद्र मोदी और उनकी हिंदूवादी भाजपा को सत्ता में लाकर कामगार वर्ग पर जातिवादी हमले तेज़ कर भारतीय पूंजीपति वर्ग की महत्वाकांक्षाओं को बढ़ाने के लिए भरपूर सहायता की है। साढ़े चार साल पुरानी इस भाजपा सरकार ने सांप्रदायिकता को आग देकर राज्य के दमनकारी तंत्र (जिसमें इलेक्ट्रॉनिक संचार व डेटा पर जासूसी भी शामिल है) को मज़बूत किया है। साथ ही साथ अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ भारत की सैन्य-रणनीति के गठजोड़ का विस्तार कर एवं वैश्विक पूंजीवाद के लिए भारत को विश्व में एक सस्ता श्रमिक बाज़ार बनाने में अहम भूमिका निभाई है।

श्रमिकों को सावधान रहना होगा।

8-9 जनवरी की ये हड़ताल राजनीतिक रूप से भारतीय स्थापना का एक अभिन्न अंग रहे उन व्यापारिक संगठनों और राजनीतिक दलों के नेतृत्व में है जिन्होंने भारतीय पूंजीवादी वर्ग के चौथाई सदी पुराने "बाज़ार समर्थक" एजेंडे के क्रियान्वयन एवं विरोध को दबाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

न केवल कांग्रेस जैसी बड़ी व्यापारिक पार्टी की साझीदार, भारतीय राष्ट्रीय व्यापारिक संगठन कांग्रेस (INTUC) ऐसा कर रही है, बल्कि प्रमुख तमिल बुर्जुआ मुख्य पार्टियों में से एक डीएमके की व्यापारिक यूनियन इकाई, श्रमिक प्रगतिशील मोर्चा (LPF) ने भी ऐसा ही किया है। यही बात समान रूप से जुड़वां स्टालिनवादी संसदीय दलों, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) या CPM,व भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI), और उनसे संबंधित अन्य सहयोगियों, भारतीय व्यापार संघ (CITU) और अखिल भारतीय व्यापारिक संगठन कांग्रेस (AITUC) पर भी लागू होती है।

जब स्टालिनवादी व अन्य विभिन्न केंद्रीय व्यापारिक संघ मिलकर 8-9 जनवरी की इस कार्रवाई को एक "आम हड़ताल" करार दे रहे हैं, तो उनका कुटिल राजनीतिक पैंतरा साफ़ समझ आता है।

किसी भी आम हड़ताल को पिछली सदी की शुरुआत में रूसी श्रमिक वर्ग द्वारा की गई क्रान्ति के साथ हमेशा जोड़ा जाता है। जिसकी शुरुआत में श्रमिक वर्ग समाजवादी कार्यकर्ताओं द्वारा आंदोलन के माध्यम से एक स्वतंत्र राजनीतिक ताकत के रूप मे उभरा था तथा जिसने बाद में लेनिन व ट्रॉट्स्की की बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में विजय भी प्राप्त की थी।

लेकिन आज मज़दूर वर्ग की आज़ाद राजनीतिक एकजुटता के लिए लड़ना तो दूर, स्तालिनवादी संगठन और उनके ट्रेड यूनियन इस मौके को भुनाने की कोशिश कर रहे हैं।

उनका उद्देश्य है इस 2 दिवसीय हड़ताल का भरपूर इस्तेमाल करके मज़दूर वर्ग और ग्रामीण गरीबों के बढ़ते सैन्य विरोध को रोकना और इस विरोध को विचलित कर सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग की इच्छुक अप्रैल-मई आम चुनाव के बाद एक वैकल्पिक दक्षिणपंथी सरकार को सत्ता में लाना है ।

स्टालिनवादियों के लिए ये हड़ताल 2019 के चुनावों से पहले एक मौका है। सीपीएम की "बड़ी लड़ाई" आगे है” वाली बात भी यहाँ सटीक बैठती है कि वोट जुटाकर नई दिल्ली में बिना बीजेपी के एक अन्य बड़ी व्यापारिक "वैकल्पिक धर्मनिरपेक्ष सरकार" हो।

ऐसी सरकार 1989 से 2008 के बीच की उन "धर्मनिर्पेक्क्ष" सरकारों की तरह ही काम करेगी, जिनमें से ज्यादातर में कांग्रेस नेतृत्व रहा है, जिनको सीपीएम और उसके वाम मोर्चे ने सहयोग किया था. उन सरकारों ने पूंजीपति वाशिंगटन के साथ घनिष्ठ संबंध बढ़ाने , संसद में नव उदार एजेंडा लागू करवाने और सामाजिक उत्तेजना को बढ़ाने का काम किया था

आज, 2008 वित्तीय संकट के दस साल बाद भी विश्व पूंजीवाद सिलसिलेवार संकट से गुजर रहा है । फलस्वरूप अगली सरकार को भारतीय व वैश्विक पूंजी एजेंडे को और बेरहमी से लागू करना होगा। अगली सरकार चाहे भाजपा की हो या स्तालिनवादी पार्टियों से समर्थित "धर्मनिरपेक्ष" कांग्रेस के नेतृत्व वाली गठबंधन हो, अथवा क्षेत्रीय, जाति-आधारित पार्टियों के "तीसरे मोर्चे" पर आधारित गठबंधन हो, अगली सरकार बेहद नाटकीय रूप से श्रमिकों और मेहनतकशों का तेज़ शोषण करेगी ताकि विदेशी बाजारों पर कब्जा करने के लिए विदेशी निवेश को आकर्षित किया जा सके।

कांग्रेस, जो कि पूंजीपति वर्ग की पारंपरिक पार्टी है, पहले से ही स्तालिनवादी पार्टियों के समर्थन का लाभ उठा रही है । ये समर्थन कांग्रेस को, भाजपा के खिलाफ इस लड़ाई में, मेहनतकश लोगों की प्रमुख सहयोगी के रूप में पेश कर रही है। पूर्व कांग्रेस विधायक और INTUC अध्यक्ष जी संजीव रेड्डी बड़ी बेशर्मी से इस "आम हड़ताल" से राहुल गांधी को श्रमिक वर्ग के मित्र व भविष्य की कॉंग्रेस की "प्रगतिशील सरकार" के मुखिया के तौर पर जोड़ते हैं।

सीपीएम व अन्य व्यापारिक संघों ने फंसाए गए मारुति सुजुकी श्रमिकों की मदद क्यों नही की

जब कोई स्टालिनवादी या सहयोगी श्रमिक संगठन हत्या के झूठे आरोप में उम्रकैद काट रहे 13 मारुति सुजुकी श्रमिकों की तत्काल बिना शर्त रिहाई की मांग नहीं करते तब इनकी असलीयत सामने आ जाते है। शोषण करनेवाली स्थितियों को चुनौती देना इन श्रमिकों का एकमात्र “अपराध” था। ये स्थितियाँ आज भारत व विश्व स्तर पर सभी विनिर्माण उद्योगों में व्याप्त हैं। स्तालिनवादी फिर भी उन्हें 19 वीं सदी के दक्षिण भारतीय ख़ारिजों की तरह मान रहे हैं, जबकि यहाँ तक कि दुसरे नियोक्ताओं ने भी मज़दूरों को “मारुति सुजुकी जैसा हाल होगा” कहकर धमकाना भी शुरू कर दिया है।

स्टालिनवादी मारुति सुजुकी श्रमिकों से दूर इसलिए रहते हैं क्योंकि उनके उग्रवादी व्यवहार से उन्हें दर है । उनका मानना है कि मारुति श्रमिकों को मज़दूरी के प्रति समर्थन व मारुति सुजुकी श्रमिकों की रक्षा को गरीबी मजदूरी और अनिश्चित रोज़गार के खिलाफ संघर्ष से जोड़ने वाला एक अभियान कांग्रेस के साथ उनके गठबंधन को और उनके यूनियनों का बड़े व्यवसाय के साथ मधुर संबंध को ख़त्म कर देगा।

मज़दूर वर्ग को जल्द ही स्टालिनवादी पार्टियों और व्यापारिक संगठनों के लिए एक आलोचनात्मक बैलेंस शीट ड्रा करने और नई रणनीति अपनाने की ज़रूरत है। एक ऐसी रणनीति जो पूंजीपति वर्ग के सभी गुटों के खिलाफ़ व मज़दूर वर्ग की स्वतंत्र राजनीतिक लामबंदी पर आधारित हो। आज ग्रामीण जनता मज़दूरों और किसानों की सरकार और समाज के समाजवादी पुनर्गठन की लड़ाई में सभी दबाए जा रहे हैं।

पिछले तीन दशकों की तरह, स्टालिनवादियों ने भाजपा और इसके हिंदूवादी सहयोगियों के अपराधों को इशारा करके, भारतीय पूंजीवाद को दोष न देकर और भारतीय लोकतंत्र को नष्ट करने के लिए शासक वर्ग की प्रतिक्रिया से श्रमिक वर्ग को सचेत नहीं करने के लिए प्रेरित किया; बल्कि कांग्रेस द्वारा मज़दूर वर्ग की अधीनता और दक्षिणपंथी क्षेत्रीय और जाति-आधारित दलों के एक मेज़बान के रूप में एक उचित औचित्य के रूप में बताया।

2019 के चुनावों के मद्देनज़र, स्टालिनवादी एक बड़ी व्यापारिक व्यवसायी, गैर-भाजपा सरकार के समर्थन के लिए खूब ज़ोर लगाकर मेहनतकश लोगों को "लोकतंत्र और संविधान बचाने" के लिए प्रेरित कर रहे हैं।

इसमें दो राय नहीं कि भाजपा मेहनतकश लोगों की दुश्मन है। लेकिन कामगार वर्ग का ये दावा कि भारतीय कामगार वर्ग पूंजीपति वर्ग व उनकी पार्टियों से टकराकर भारतीय राज्यों की "लोकतांत्रिक" संस्थाओं पर अपना भरोसा रखते हुए लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा कर सकते हैं, जो मज़दूर संघर्षों का लगातार उल्लंघन करते हैं एक के बाद एक सांप्रदायिक अपराध और आवरण में उलझे हुये हैं - सरासर झूठ है।

हिन्दू दक्षिणपंथी ताक़तें आज इतनी खतरनाक बन चुकी है, उसका कारण सिर्फ़ स्टालिनवादियों की आपराधिक नीतियों की वजह से है। वर्ग संघर्ष का उनका तरीकेवार दमन; जो वे खुद स्वीकार करते हैं, पश्चिम बंगाल जैसे राज्य में "समर्थक-निवेशक" उनकी सरकार की नीतियों का सफलतापूर्वक कार्यान्वयन और हिन्दू दक्षिणपंथी का विरोध करने के नाम पर मज़दूर वर्ग की अधीनता वाली कांग्रेस और अन्य पार्टियों की परतंत्रता ने उस ज़मीन को पोषित किया है जिस पर प्रतिक्रियावादी दल बढ़ सकते हैं।

चूँकि मज़दूर वर्ग को सामाजिक संकट दूर करने के उनके अपने समाजवादी तरीके को आगे बढ़ाने से रोका गया है, इसलिए भाजपा विभिन्न स्तालिनवादी-समर्थित “धर्मनिरपेक्ष” सरकारों द्वारा अपनाई गई नव-उदारवादी नीतियों के विनाशकारी असर पर फैले गुस्से से अनुचित लाभ उठाने में समर्थ रही है।

पूंजीवादी संकट व बुर्जुआ लोकतंत्र का पतन

मोदी सरकार एक वैश्विक घटना की भारतीय अभिव्यक्ति है। 1930 के दशक के बाद आज पूंजीवादअपने सबसे बुरे दौर में है। अमेरिका के नेतृत्व में, साम्राज्यवादी शक्तियां अभिजात वर्ग को प्रताड़ित कर तेज़ी से खुद को संभाल रही हैं। सत्ताएं आज हर जगह जनता को जातीय व सांप्रदायिक विभाजन के नए सत्तावादी रूपों में बदल रहा है।

न केवल फासीवादी ट्रम्प, बल्कि इटली में चरम-दाहिने लेगा, जर्मन संसद में आधिकारिक विपक्ष नियो-नाज़ी और ब्राज़ील के अति-दक्षिणपंथी सैन्य-समर्थक राष्ट्रपति जेयर बोल्सोनारो, सभी बुर्जुआ लोकतांत्रिक मानदंडों का विनाश कर रहे हैं। आज उदारवाद के समर्थक भी उनकी तरह ही कर रहे हैं।

आज जहां अमेरिका में, डेमोक्रेटिक पार्टी युद्ध-विरोधी व समाजवादी विचारों के प्रसार को रोकने, विशेष रूप से विपक्ष को रोकने के लिए इंटरनेट सेंसर के एक अभियान का नेतृत्व कर रही है। वहीं डेमोक्रेट सैन्य व अन्य खुफिया एजेंसियों के साथ मिलकर तख्तापलट के माध्यम से ट्रम्प को हटाने की साजिश भी रच रहे हैं। वे रूस के खिलाफ वाशिंगटन का रुख कड़ा करना चाहते हैं। फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमानुएल मैक्रॉन ने "आपातकालीन" "आतंकवाद विरोधी" शक्तियों को सामान्य कर उन्हें श्रमिकों के सामाजिक अधिकारों पर हमला कर बड़े पैमाने पर धमकाया है।

लोकतांत्रिक अधिकारों और हार की प्रतिक्रिया की रक्षा करने की एकमात्र रणनीति निडर अंतर्राष्ट्रीय वर्ग संघर्ष और पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ मज़दूर वर्ग की राजनीतिक एकजुटता है।

2018 में, मज़दूर वर्ग उन संघर्ष की बाधाओं का विरोध करने लगा, जो की सीपीएम और इंटक के अंतरराष्ट्रीय समकक्ष जैसे की ग्रीस के छद्म-वाम दल सीरियजा, पूंजीवादी ट्रेड यूनियनों और सामाजिक-लोकतांत्रिक पार्टियों के द्वारा फैलाया गया था । फ्रांस का येलो वेस्ट आंदोलन पूँजीवादी और सामाजिक असमानता के खिलाफ इस वैश्विक हलचल का जीवंत उदाहरण है। और ये तथ्य भी कि मज़दूर वर्ग का विरोध खुले तौर पर “वाम” दलों और संगठनों की स्थापना के रूप में बढ़ रहा है।

अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए भारत के श्रमिकों को स्टालिनवादी पार्टियों और संगठन से ऐसे नए स्वतंत्र संगठनों की ज़रूरत है जो अपने निर्णय स्वयं कर सकें। भारतीय श्रमिकों को श्रीलंका में एबॉट्सलेघ चाय एस्टेट के वृक्षारोपण श्रमिकों के उदाहरण से सीख लेनी चाहिए, जिन्होंने नियोक्ता यूनियनों के हमलों के जवाब में अपने मूल अधिकारों के संघर्ष के लिए मुकदमा चलाने हेतू एक रैंक-एंड-फ़ाइल समिति की स्थापना की है।

इन सबके अलावा, मज़दूर वर्ग को अपने संघर्षों के लिए वैश्विक स्तर पर जुड़ने के लिए एक क्रांतिकारी दल की ज़रूरत है। फ़ोर्थ इन्टरनेशनल व दक्षिण एशिया के उसके राष्ट्रीय खंड जिसमें समाजवादी समानता पार्टी (श्रीलंका) शामिल है, एक ऐसा ही संगठन है।

1938 में लियोन ट्रॉट्स्की द्वारा स्थापित, फ़ोर्थ इंटरनेशनल ने पूंजीवाद के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद कार्यक्रम का बेहतर बचाव व विकास किया है। सभी सोवियत स्टालिनवादी नौकरशाही से ऊपर सीपीएम और सीपीआई के राजनीतिक गुरु-जिन्होंने "एक देश में समाजवाद" के राष्ट्रवादी बैनर वाली 1917 की रूसी क्रांति में विश्वासघात कर अंततः यूएसएसआर में पूंजीवाद को बहाल किया था। फ़ोर्थ इंटरनेशनल (आईसीएफआई) की अंतर्राष्ट्रीय समिति द्वारा 1953 से संचालित, ये अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर वर्ग की के सभी संघर्ष रणनीठियों को शामिल करता है, जिसमें पिछली सदी की सभी हार-जीत

और 21 वीं सदी के पहले दो दशकों की हार शामिल हैं।

श्रमिक व युवा सभी सामाजिक असामानताओं, पूंजीवाद व युद्ध का विरोध करें। अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद की लड़ाई को आगे बढ़ाएं। आईसीएफआई के भारतीय खंड का निर्माण में सहयोग करें।

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