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बीबीसी डॉक्यूमेंट्री ने 2002 मुस्लिम विरोधी नरसंहार के लिए मोदी को ठहराया दोषी

भारत की हिंदू श्रेष्ठतावादी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सरकार ने बीबीसी की एक डॉक्यूमेंट्री पर कड़ा विरोध जताया है जिसमें 2002 के गुजरात मुस्लिम विरोधी नरसंहार में बलवाईयों की मदद और हिंसा को नज़रअंदाज़ करने की प्रधानमंत्री मोदी की भूमिका की पड़ताल की गई है.

28 फ़रवरी से 2 मार्च 2002 तक चली इस सांप्रदायिक हिंसा ने गुजरात को हिलाकर रख दिया था. आधिकारिकर रूप से इसमें 1,044 लोग मारे गए जिसमें 790 मुस्लिम थे. लेकिन माना जाता है कि मौत के असल आंकड़े 2,000 के पार हैं. इसके अलावा लाखों ग़रीब मुसलमान बेघर हो गए क्योंकि हिंसा पर उतारू भीड़ ने उन्हें डराया और उनके घरों को जला कर राख कर दिया. कुछ भीड़ की अगुवाई तो जाने माने बीजेपी नेताओं और हिंदू सांप्रदायिक ग्रुपों ने खुलेआम की.

2002 की फ़रवरी-मार्च में हुई इस हिंसा को भड़काने और करवाने में मोदी की भूमिका सभी जानते हैं, जो 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री थे और 2014 में देश के प्रधानमंत्री बने.

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फ़ोटोः नरेंद्र मोदी के फ़ेसबुक पेज से) [Photo: Narendra Modi Facebook page]

पाकिस्तान के साथ युद्ध जैसे माहौल में भारत की उस समय की बेजीपी नीत केंद्र सरकार के शासन के दौरान, मोदी ने मुसलमान विरोधी हिंसा को और हवा दी. 28 फ़रवरी को गोधरा में एक ट्रेन में आग लगने से 59 हिंदू कट्टरपंथी कार्यकर्ताओं के मारे जाने के तुरंत बाद उन्होंने पहले तो इसके लिए मुसलमानों को दोषी ठहराया और वो भी इस तरह कि गुजरात के अल्पसंख्यक मुसलमान सामूहिक रूप से इसके दोषी घोषित हो गए. इसके बाद हिंदू सांप्रदायिक ग्रुपों की ओर से राज्यव्यापी आम हड़ताल के आह्वान का उन्होंने समर्थन किया. जब मुसलमान विरोधी हिंसा भड़की, तो गुजरात के मुख्यमंत्री ने पुलिस को हस्तक्षेप न करने के निर्देश दिए, जोकि सरकार की शह पर सांप्रदायिक हिंसा भड़काने की ही स्थिति में हो सकता था.

अगर मोदी पिछले दो दशक से जेल की सज़ा नहीं काट रहे हैं तो सिर्फ इसलिए क्योंकि पूरी तरह से सांप्रदायिक हो चुकी राज्य की मशीनरी, पुलिस और न्यायपालिका से लेकर गुजरात सरकार और केंद्र सरकार तक, उनको बचाती रही है. इसके अलावा भारत के पूंजीपति शासक वर्ग की मिलीभगत और भरपूर समर्थन भी उनको मिलता रहा.

'इंडियाः द मोदी क्वेश्चन' डॉक्यूमेंट्री दो भागों में है, इसके पहले हिस्से को बीबीसी 2 ने 17 जनवरी और दूसरे हिस्से को 24 जनवरी को प्रसारित किया था. इसमें बहुत समझबूझ और तालमेल के साथ हुए 2002 के 'दंगों' और इस सामूहिक हत्या के लिए मोदी की भूमिका के बारे में अतिरिक्त जानकारी दी गई है.

इस डॉक्यूमेंट्री में गुजरात नरसंहार पर ब्रिटिश सरकार की एक गोपनीय रिपोर्ट का विस्तार से हवाला दिया गया है जिसके बारे में अभी तक किसी को पता नहीं था. इसे फॉरेन ऑफ़िस की जांच टीम ने तैयार किया था जिसने सांप्रदायिक दंगे के कुछ दिन बाद ही गुजरात का दौरा किया.

रिपोर्ट कहती है कि 'हिंसा उससे कहीं भयानक थी जितनी रिपोर्ट की गई' और ये बहुत नियोजित थी: 'हिंसा का एक व्यवस्थित मुहिम थी जिसमें नस्लीय सफ़ाई के सारे चिह्न मौजूद थे.' रिपोर्ट में यहां तक कहा गया है कि 'इन दंगों का मकसद था, मुसलमानों को हिंदू इलाक़ों से खदेड़ना.' रिपोर्ट के मुताबिक, 'मुसलमान महिलाओं के साथ व्यापक और व्यवस्थित रेप की घटनाएं' जनता में डर बैठाने के लिए की अंजाम दी गईं.

यह रिपोर्ट विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) के कार्यकर्ताओं द्वारा हिंसा को भड़काने को हाइलाइट करती है. वीएचपी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से संबद्ध एक अर्द्धसैनिक संगठन है जो 'हिंदू राष्ट्र' को फिर से स्थापित करने के लिए समर्पित है. मोदी आरएसएस के आजीवन सदस्य रहे हैं और सरकार के बड़े फ़ैसलों को लेकर इसके नेताओं से हमेशा सलाह मशविरा करते हैं.

हालांकि, बीबीसी रिपोर्ट बताती है कि वीएचपी के हिंदू सांप्रदायिक गुंडे और उनके सहयोगी इतना नुकसान नहीं बरपा पाते अगर राज्य सरकार ने 'उन्हें संरक्षण देने' का माहौल न बनाया होता. इसी वजह से यह रिपोर्ट अपनी बात पर क़ायम रहती है कि, 'नरेंद्र मोदी सीधे तौर पर ज़िम्मेदार हैं.'

बीबीसी डॉक्यूमेंट्री में यूरोपीय संघ की ओर से कराई गई एक अलग जांच के नतीजों की ओर भी इशारा करती है. कथित तौर पर इस जांच में इस नतीजे पर पहुंचा गया है कि मोदी की राज्य सरकार ने 'हिंसा में सक्रिय हिस्सा लिया और वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को दंगे में हस्तक्षेप न करने के निर्देश दिए गए थे.'

'इंडियाः द मोदी क्वेश्चन' में एक पूर्व राजनयिक का साक्षात्कार भी शामिल किया गया है जो फॉरेन ऑफ़िस की जांच टीम का हिस्सा थे और उनकी पहचान ज़ाहिर नहीं की गई है. इस पूर्व राजनयिक ने बताया, 'हिंसा के दौरान कम से कम 2,000 लोग मारे गए थे.' 'इसमें सबसे अधिक संख्या मुसलमानों की थी. हमने नरसंहार के रूप में इसका उल्लेख किया- जानबूझ कर और राजनीति से प्रेरित एक कोशिश, जिसके निशाने पर मुसलमान समुदाय था.'

बीबीसी डॉक्यूमेंट्री बनाने वाली टीम ने उस समय के ब्रिटिश फॉरेन सेक्रेटरी जैक स्ट्रॉ का भी इंटरव्यू किया है, जोकि 2003 में इराक़ पर अमेरिका और ब्रिटेन के हमले के मास्टरमाइंड लोगों में से एक थे और मोदी की तरह उनके हाथ भी खून से सने हैं.

स्ट्रॉ ने फॉरेन ऑफ़िस की गुजरात इंक्वायरी टीम गठित किए जाने की पृष्ठभूमि के बारे में बताया, 'ये बड़े गंभीर दावे थे कि मुख्यमंत्री मोदी ने पुलिस को पीछे करने और हिंदू कट्टरपंथियों को ख़ामोशी के साथ बढ़ावा देने में बहुत हिस्सेदारी की.'

स्ट्रॉ ने टीम की रिपोर्ट को 'बहुत विस्तृत' कहा, हालांकि ज़मीन से मिले नतीजों को सार्वजनिक न किए जाने पर तत्कालीन ब्रिटिश लेबर सरकार का उन्होंने बचाव किया क्योंकि इससे ब्रिटेन के हित प्रभावित होते, या यूं कहें, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के व्यापारिक और रणनीतिक हित प्रभावित होते. जब स्ट्रॉ ब्रिटिश साम्राज्यवाद की लुटेरी विदेश नीति के दूत के रूप में 'मानवाधिकार' की वकालत कर रहे थे और उसी समय इराक़ युद्ध को सही ठहरा रहे थे, तब भारत के सवाल पर उनके पास 'सीमित विकल्प' ही था, ऐसा वो दावा करते हैं. वो कहते हैं, 'हम भारत से कूटनीतिक संबंध कभी नहीं तोड़ सकते थे, लेकिन ये उनकी (मोदी) प्रतिष्ठा पर दाग ही है.'

ब्रिटिश फॉरेन ऑफ़िस की अपनी जांच के बाद गुजरते महीनों और सालों में गुजरात नरसंहार में मोदी के दोषी होने के और सबूत सामने आए. यहां ये कहना ज़रूरी है कि ये एक ऐसी जांच थी, जिसके पास भारतीय पुलिस और अदालतों की जांच करने की बाध्यकारी शक्ति नहीं थी.

सबसे ख़ास बात उस सबूत को लेकर है जिसे हरेन पांड्या और संजीव भट्ट ने मुहैया कराया. पांड्या उस समय मोदी सरकार में राजस्व मंत्री थे और भट्ट पुलिस डिप्टी कमिश्नर थे जिन्होंने 27 फ़रवरी 2002 की रात मोदी के आवास पर बुलाई गई 'अनौपचारिक बैठक' में हिस्सा लिया था. पांड्या के मुताबिक, इस बैठक का बस एक ही मक़सद था. बैठक में जो लोग इकट्ठा हुए उन्हें मोदी ने 'लोगों को अपना गुस्सा निकालने देने और हिंदू प्रतिघात के रास्ते में न आने' का निर्देश दिया. मार्च 2003 में पांड्या की रहस्यात्मक रूप से हत्या कर दी गई थी. साल 2009 में संजीव भट्ट ने अदालत को बयान दिया कि वो इस बैठक में मौजूद थे और पांड्या के दावों की पुष्टि की.

लेकिन हर कदम पर भारतीय प्रशासन ने 2002 की घटनाओं की जांच को विफल किया, ख़ासकर उन घटनाओं को लेकर जिनमें मोदी और उनके दाहिने हाथ और भारत के इस समय गृह मंत्री अमित शाह का नाम शामिल था. जो थोड़ी बहुत सज़ाएं हुईं, वो पीड़ितों की ओर से किए गए अथक प्रयासों की वजह से हुईं. जैसे कि बिलकिस बानो का मामला था. 2002 में जब उनका बर्बरता पूर्वक बलात्कार किया गया वो 21 साल की थीं और पांच महीने की गर्भवती थीं. उनके घर के 14 सदस्यों का क़त्ल कर दिया गया था.

2002 के नरसंहार के ज़िम्मेदार लोगों को बचाने में गुजरात की पुलिस, न्यायपालिका और सरकारी प्रशासन की कोशिश इतनी बेशर्मी भरी थी कि आख़िरकार सुप्रीम कोर्ट को मजबूरन हस्तक्षेप करना पड़ा. हालांकि पहले से कुछ ख़ास साख़ न रखने वाली भारत की सर्वोच्च अदालत ने जल्द ही न्यायिक सत्यनिष्ठा को मोदी और उनके सहयोगियों की सेवा में समर्पित कर दिया.

बीते जून में आया फ़ैसला इसी का नतीजा था जो लंबे समय तक के लिए कलंक बना रहेगा. सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस सांसद की विधवा ज़ाकिया जाफ़री की याचिका ख़ारिज कर दी. एक मुसलमान कॉलोनी में कांग्रेस सांसद अहसान जाफ़री और 68 अन्य लोगों की 28 फ़रवरी 2002 को हत्या कर दी गई थी. याचिका में यही कहा गया था कि इस बात की जांच की जाए कि क्या उनकी मौत 'एक बड़ी साज़िश का हिस्सा' थी- इसका सीधा मतलब था, मुसलमान विरोधी और नस्लीय सफ़ाए का सोचा समझा अभियान तो नहीं थी ये हिंसा.

लेकिन सर्वोच्च अदालत ने न केवल मोदी, शाह और गुजरात प्रशासन को 'क्लीन चिट' देते हुए बरी कर दिया, बल्कि जाफ़री और उनकी सह याचिकाकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ की भर्त्सना की कि वे 'किसी मक़सद से मामले को गरम बनाए रखना' चाहती हैं. अदालत ने यहां तक कहा कि वे खुद 'कटघरे' में हैं और उनपर मुकदमा चलाया जाना चाहिए. इसके अगले दिन ही, सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का हवाला देते हुए, गुजरात पुलिस की एटीएस टीम ने तीस्ता सीतलवाड़ और गुजरात पुलिस के एक पूर्व अधिकारी आरबी श्रीकुमार को गिरफ़्तार कर लिया. श्रीकुमार ने नरसंहार में पुलिस की भूमिका को उजागर किया था.

यह उस बड़ी प्रक्रिया का हस्सा है, जिसमें भारतीय शासक वर्ग ने मोदी को 'एक मज़बूत आदमी' के रूप में हाथों हाथ लिया जो उनके हित में भारत के श्रमिकों और मेहनतकशों के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ सके और अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ मिलकर सत्ता तक पहुंचने की अपनी महात्वाकांक्षा को आक्रामक रूप से परवान चढ़ा सके. फ़ासिस्ट हिंदू श्रेष्ठतावादियों में आधार रखने वाली बीजेपी, सरकार की प्रमुख पार्टी के रूप में बदल चुकी है. इसके अलावा केंद्र सरकार में रहते हुए भारत के दो तिहाई राज्यों में उसी की सत्ता है.

जैसा हर जगह होता है, धुर दक्षिणपंथी ताक़तें तभी सत्ता में पहुंचती हैं जब हर मोड़ पर झूठी 'लेफ़्ट' और उदारवादी पार्टियां दक्षिणपंथ की ओर तेज़ी से झुक जाती हैं. हिंदू फ़ासीवाद से लड़ने के नाम पर भारत की दो स्टालिनवादी संसदीय पार्टियां सीपीएम और सीपीआई ने मज़दूर वर्ग को कारपोरेट परस्त कांग्रेस पार्टी के अधीन बनाए रखा. और जिन राज्यों में वे सत्ता में हैं उन्होंने वही नीतियां लागू कीं, जिसे वो 'निवेशक उन्मुख' नीतियां बताती हैं.

दो दशक बीत गए हैं, गुजरात नरसंहार भारतीय राजनीति पर एक रिसता हुआ जख़्म बना हुआ है. फ़रवरी-मार्च 2002 की घटनाओं के कारण लाखों मुसलमान अपने घरों से दूर होकर घेट्टो में रह रहे हैं, जो अपने संपूर्ण अर्थ में आंतरिक विस्थापन कैंप हैं. अपने हिंदू श्रेष्ठतावादी आधार को मजबूत करने और वोटरों के ध्रुवीकरण करने के लिए मोदी और बीजेपी लगातार 2002 की घटनाओं का इस्तेमाल करते हैं. पिछले साल हुए गुजरात विधानसभा चुनावों में राज्य सरकार ने बिलकिस बानो के परिवार की हत्या में भूमिका निभाने के लिए आजीवन कारावास भुगत रहे 11 लोगों को हीरो की तरह स्वागत वाली रिहाई दे दी.

बीजेपी ने अहमाबाद के नरोदा इलाके से एक मौजूदा विधायक का टिकट तक काट दिया ताकि नरोदा पाटिया नरसंहार के दोषी एक बीजेपी कार्यकर्ता की 30 साल की बेटी पायल कुलकर्णी को उम्मीदवार बनाया जा सके. नरोदा पाटिया में 96 मुसलमान मारे गए थे.

ज़ाहिर है, भारत सरकार, कारपोरेट मीडिया और बीजेपी का एनआरआई में बड़ा नेटवर्क बीबीसी डॉक्यूमेंट्री से बहुत ख़फ़ा है. भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने 'प्रोपेगैंडा' बताते हुए इसकी निंदा की है. उनके अनुसार, ये 'पूर्वाग्रह' और 'औपनिवेशिक मानसिकता' से बनाई गई फ़िल्म है. 2002 के गुजरात नरसंहार में मोदी की भूमिका को भलीभांति जानते हुए भी, पश्चिमी साम्राज्यवादी सरकारों ने शुरू में सोचा कि उनसे दूरी रखने में ही भलाई है. उन्हें एक दशक से ज़्यादा समय तक ब्रिटेन में आने की इजाज़त नहीं दी गई. जब 2014 में वो भारत के प्रधानमंत्री बने तभी वॉशिंगटन में उनका स्वागत हुआ. लेकिन अब ये सब पुराना इतिहास हो चुका है.

प्रधानमंत्री के तौर पर उनके 9 साल के शासन में, ख़ासकर 2019 में फिर से चुनाव जीतने के बाद से ही मोदी और उनकी बीजेपी ने भारत को हिंदू राष्ट्र (ऐसा राज्य जहां हिंदुओं की श्रेष्ठता मानी जाएगी और अल्पसंख्यक जलालत में रहेंगे.) में तब्दील करने के वैचारिक लक्ष्य के लिए मुसलमान विरोधी और अल्पसंख्यक विरोधी भावना को भड़काने का काम किया है. इसका राजनीतिक उद्देश्य है बढ़ती बेरोज़गारी, गहराती ग़रीबी और सामाजिक ग़ैरबराबरी से उपजे सामाजिक आक्रोष को अपने प्रतिक्रियावादी लाइन के लिए इस्तेमाल करना और मज़दूर वर्ग में विभाजन पैदा करना. जबकि बाइडेन, मैक्रों, स्कोल्ज़ और ट्रूडो जैसे नेताओं की ओर से इस साम्प्रदायिक गैंगस्टर की दुनिया के 'सबसे बड़े लोकतंत्र' के नेता और निरंकुश चीन के मुकाबले 'आज़ादी' की मुस्तैदी से रक्षा करने वाले के तौर पर तारीफ़ मिलती है.

इन बातों के मद्देनज़र, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने बड़ी हड़बड़ी में गुजरात नरसंहार में मोदी की भूमिका को उजागर करने वाली बीबीसी डॉक्यूमेंट्री से खुद को अलग कर लिया. उन्होंने ब्रिटिश संसद को बताया कि वो भारत के प्रधानमंत्री के 'चरित्रीकरण' से सहमत नहीं हैं.

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