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Perspective

मई दिवस 2023 के लिए आगे बढ़ो! युद्ध के ख़िलाफ़ और समाजवाद के लिए मज़दूरों, नौजवानों के एक जनआंदोलन का निर्माण करो!

इस लेख 8 अप्रैल 2023 को छापा गया “Forward to May Day 2023! Build a mass movement of workers and youth against war and for socialism!” का हिंदी अनुवाद है।

इंटरनेशनल कमेटी ऑफ़ फ़ोर्थ इंटरनेशनल, इंटरनेशनल वर्कर्स अलायंस ऑफ़ रैंक एंड फ़ाइल कमेटीज़, इंटरनेशनल यूथ एंड स्टूडेंट्स फ़ॉर सोशल इक्वालिटी और वर्ल्ड सोशलिस्ट वेबसाइट मई दिवस 2023 को मानने के लिए 30 अप्रैल, रविवार को एक ऑनलाइन वैश्विक रैली आयोजित करेंगे.

(फ़ोटोः wsws)

इस साल मज़दूर वर्ग की अंतरराष्ट्रीय एकजुटता मनाने के दौरान दो चीजें बहुत महत्वपूर्ण हैंः यूक्रेन में युद्ध, जोकि एक वैश्विक संकट की ओर बढ़ रहा है, और वर्ग संघर्ष का अंतरराष्ट्रीय उभार. ये दोनों चीजें एक दूसरे से बहुत हद तक जुड़ी हुई हैं. ये वही आर्थिक, भूराजनैतिक और सामाजिक अंतरविरोध हैं जो साम्राज्यवादी सत्ताधारी कुलीनों को युद्ध की तरफ़ धकेलते हैं और इससे मज़दूर वर्ग के जुझारू आंदोलन और क्रांतिकारी संघर्ष फूट पड़ते हैं.

यूक्रेन युद्ध दूसरे साल में प्रवेश कर गया है. सबसे विश्वसनीय रिपोर्टों का अनुमान है कि अबतक 1,50,000 यूक्रेनी सैनिक मारे गए हैं और रूस की ओर हुई मौतों का आंकड़ा 50,000 से 1,00,000 बीच है. इतने बड़े पैमाने पर इंसानी ज़िंदगियों के नुकसान से बिना विचलित हुए और संघर्ष विराम का आह्वान न करते हुए अमेरिका और इसके नेटो सहयोगी यूक्रेन में हथियार झोंक रहे हैं. इस छद्म युद्ध में जीत को अमेरिका और नेटो की नाक का सवाल बना चुकने के बाद, बाइडेन प्रशासन अपने सैन्य और भूराजनैतिक लक्ष्यों के विफल होने को बर्दाश्त नहीं कर सकता. युद्ध के इसके मक़सद की तार्किकता उसे मनमानी नीतियां थोपने की ओर ले जाती है. 

युद्ध पिपासु मीडिया, इस गर्मियों में यूक्रेन के अवश्यंभावी प्रत्याक्रमण की संभावनाओं को लेकर अपनी ख़ुशी छिपा नहीं पा रहा है, जोकि, अगर होता है तो इससे हताहतों की संख्या, प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान सोमे और वर्डन की लड़ाई में हुई तबाही की याद दिला देगी. कोविड-19 महामारी से निपटने के नाम पर ऐसी नीतियां अपनाकर, जिससे दसियों लाख लोग मारे गए, पूंजीवादी सरकारें और मीडिया के प्रोपेगैंडा अंग, रूस के साथ लड़ाई में अपने युद्धपिपासु उद्देश्यों के घातक परिणामों में मशगूल हो गए हैं. सामाजिक ज़रूरतों को पूंजीवादी मुनाफ़े और निजी अमीरी के मातहत लाने के कारण होने वाली सामूहिक मौतें पूंजीवादी समाजों की ख़ासियत बन चुकी हैं. तुर्की और सीरिया में आया भूकंप, जिसमें माना जाता है कि डेढ़ लाख से अधिक मारे गए, उन अनगिनत रोकी जा सकने वाली आपदाओं में से एक है जो आज की ज़िंदगी का हिस्सा बन गया है.

युद्ध के पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए बाइडेन प्रशासन 'बिन उकसावे वाले युद्ध' की अनर्गल कहानी बनाने में जुटा हुआ है. और जनता से उम्मीद की जाती है को वो ये मान ले कि एक सुबह पुतिन उठे और बिना कारण आदेश जारी कर दिया कि, 'चलो यूक्रेन में युद्ध हो जाए.' लेकिन इतिहास हमें दिखाता है कि युद्ध, आर्थिक, भूराजनैतिक और सामाजिक प्रक्रिया के जटिल टकरावों का परिमाण होते हैं. 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध शुरू होने के 100 साल बाद भी इतिहासकार उस युद्ध के कारणों को समझने की कोशिश कर रहे हैं.

जर्मन विद्वान जोर्न लियोनहार्ड ने हाल ही में लिखा हैः

थूसीडाइड्स (एथेंस और स्पार्टा के युद्ध पर लिखने वाला इतिहासकार) के ज़माने से ही, इतिहासकार युद्ध के होने के कारणों और इसके नतीजे के कारणों के बीच अंतर से परिचित हैं;  वे यह भी अच्छी तरह जानते हैं कि वैचारिक आलोचना को न्यायसंगत ठहराने की कितनी ज़रूरत होती है. इस क्षेत्र में विशिष्टता को खड़ा किया जा सकता है, जैसे क्रांतियों के कारणों की खोज में होता है; दीर्घ, मध्यम और अल्पकालिक अवधि के कारणों की शिनाख़्त करते हुए निर्धारक तत्वों, उत्प्रेरकों और संभावनाओं को छांटा जाता है. ख़ासकर किसी युद्ध के शुरू होने के मामले में बाहरी और घरेलू वजहें आज भी बहुत प्रमुख भूमिकाएं निभाती हैं. किसी युद्ध के मूल कारण किस हद तक अंतरराष्ट्रीय संबंध में निहित होते हैं और किस हद तक समाज और राज्य के आंतरिक मामले इसकी जड़ में होते हैं, इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है.[1]

'बिन उकसावे वाले युद्ध' की जो कहानी प्रचारित की जा रही है, वो और कुछ नहीं बल्कि युद्ध के ऐतिहासिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कारणों को ही बताता है. ये यू्क्रेन युद्ध में अमेरिका और नेटो के कनेक्शन की किसी भी पड़ताल से ध्यान भटकाते हैं:

1) पिछले 30 सालों तक बिना रोक टोक के इराक़, सर्बिया, अफ़ग़ानिस्तान, सोमालिया, लीबिया और सीरिया में छेड़े गए युद्ध;  2) 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद से नेटो का लगातार पूरब की ओर प्रसार करना;  3) चीन के साथ भूराजनैतिक टकराव का बढ़ना, जिसे अमेरिकी साम्राज्यवाद दुनिया में अपनी दरोगा वाली हैसियत के लिए ख़तरा मानता है;  4) वैश्विक अर्थव्यवस्था में अमेरिका की स्थिति में गिरवाट का लगातार जारी रहना, जिसे अमेरिका, डॉलर के अपने वैश्विक दबदबे के लिए कड़ी चुनौती मान रहा है; 5) एक के बाद एक आर्थिक झटकों से उबरने के लिए, पहले से ही पूरी तरह ढहने की कगार पर खड़े अमेरिकी वित्तीय तंत्र को बचाने के लिए बेलआउट की ज़रूरत 6) अमेरिकी राजनीतिक तंत्र का ध्वस्त होना आसन्न है, जोकि नवंबर 2020 के आम चुनावों के नतीजे आने के बाद 6 जनवरी 2021 को डोनॉल्ड ट्रंप की ओर से तख़्तापलट की कोशिश में दिखा भी, 7) अमीरी ग़रीबी के बीच गहरी खाई से ग्रस्त समाज में घरेलू अस्थिरता बढ़ रही है और महामारी और इसकी लहरों के असर से तीख़ी हो रही है, और ये अमेरिकी मज़दूर वर्ग को और जुझारू बना रही है.

इन सबसे ध्यान भटकाने की कोशिश है.

'बिन उकसावे वाले युद्ध' की कहानी का सबसे मुंहतोड़ जवाब वर्ल्ड सोसशनलिस्ट वेब साइट पर छपे इंटरनेशनल कमेटी ऑफ़ फ़ोर्थ इंटरनेशनल (आईसीएफ़आई) के कई बयानों में देखा जा सकता है. इसमें पिछली एक चौथाई सदी के दौरान उन आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक अंतरविरोधों की विवेचना की गई है, जिसने 'अमेरिकी कारपोरेट-वित्तीय संपन्न वर्ग' को युद्ध के द्वारा अपने असाध्य संकट को हल करने की हताशापूर्ण कोशिश के लिए प्रेरित किया है.

बीस साल पहले, मार्च 2003 में बुश प्रशासन द्वारा ईराक़ पर हमले के एक हफ़्ते बाद ही सोशलिस्ट इक्वालिटी पार्टी, आईसीएफ़आई के अमेरिकी हिस्से ने समझाया थाः

'अमेरिकी साम्राज्यवादी की रणनीति है कि वो अपने विशाल सैन्य ताक़त का इस्तेमाल करके अमेरिका की निर्विरोध वैश्विक दादागीरी को स्थापित करे और वैश्विक अर्थव्यवस्था के संसाधनों को अपना ग़ुलाम बना ले.' [2]

विश्व पूंजीवाद में केंद्रीय भूमिका के चलते, अमेरिकी साम्राज्यवाद के संकट ने पूरे राजनीतिक और आर्थिक तंत्र को अस्थिर कर दिया था. मूल रूप से इसकी नीतियां महज राष्ट्रीय संकट के मद्देनज़र नहीं बल्कि वैश्विक संकट के लिहाज से तय हुईं. बाद की अमेरिकी सरकारों की बर्बर रूप से आक्रामक नीतियां, साम्राज्यवाद के आधार बूते दुनिया की उस ऐतिहासिक समस्या को हल करने की कोशिश थी, जो उत्पादक शक्तियों के वैश्विक चरित्र और पुराने राष्ट्र राज्य वाले तंत्र के बीच अंतरविरोध से उपजती हैं.

अमेरिका ने इस समस्या का हल निकालने के लिए एक 'सुपर राष्ट्र राज्य' स्थापित करने के लिए खुद को पेश किया. यानी ऐसा राज्य जिसके हाथ में दुनिया का भाग्य हो, जो ये तय करे कि विश्व अर्थव्यवस्था के संसाधन का बंटवारा कैसे हो, स्वाभाविक है कि अपने लिए इसका एक बड़ा हिस्सा हथियाने के बाद. लेकिन विश्व पूंजीवाद, जोकि 1914 में भयानक प्रतिक्रियावादी था, के अंदर मौजूदा अंतरविरोधों को हल करने का इस साम्राज्यवादी तरीक़े ने कोई सबक नहीं लिया. असल में, बीसवीं सदी के दौरान विश्व अर्थव्यवस्था में आए अभूतपूर्व विकास ने पागलपन से भरे ऐसे ही साम्राज्यवादी प्रोजेक्ट को प्रोत्साहित किया. एक अकेले राष्ट्र राज्य का बर्चस्व स्थापित करने की कोशिश, अंतरराष्ट्रीय आर्थिक एकीकरण के असाधारण स्तर से मेल नहीं खाता. इस प्रोजेक्ट का अत्यधिक प्रतिक्रियावादी चरित्र, इसके बर्बर तरीक़ों में साफ़ दिखता है, जोकि इसे सही ठहराने के लिए ज़रूरी होता है.[3]

मौजूदा वैश्विक शक्ति संतुलन को देखते हुए नेटो गठबंधन में अमेरिका के यूरोपीय साम्राज्यवादी सहयोगी, वाशिंगटन की तय की गई नीतियों को मानने को मजबूर हैं, लेकिन रूस के साथ टकराव में वे किसी भी तरह से निर्दोष दर्शक नहीं हैं. यूरोप की सभी पुरानी साम्राज्यवादी ताक़तें, जो पिछली ही सदी में दो विश्व युद्धों से होकर गुजरीं, जिन्होंने अपने पूर्व उपनिवेशों में वहशी अपराधों को अंजाम दिया और अपने ही देशों में नरंसहार और फासीवाद के प्रयोग किए, वे उन्हीं राजनीतिक और आर्थिक बीमारियों से घिरी हैं जिसने अमेरिका को ग्रस्त कर रखा है. और इनसे निपटने में उनके पास बहुत कम वित्तीय संसाधन बचे हैं.

हालांकि स्वतंत्र रूप से अपने साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं को जारी रखने की ताक़त उनमें नहीं है, न तो ब्रिटेन, फ़्रांस, इटली और जर्मनी में और ना ही स्वीडन, नॉर्वे, डेनमार्क, स्पेन, बेल्जियम और स्विट्जरलैंड जैसे कम ताक़त वाले देशों में. इसके बावजूद उन्हें, इलाक़ों और प्राकृतिक संसाधनों के पुनः बंटवारे और वित्तीय फ़ायदों में हिस्सा पाने से खुद को अलग रख पाना स्वीकार्य नहीं है जो कि रूस की सैन्य हार और उसके टुकड़े टुकड़े होने पर वे उम्मीद लगाए बैठे हैं. 

लेकिन एकता का ढिंढोरा पीटने के बावजूद नेटो गठबंधन गहरे आंतरिक मतभेदों से ग्रस्त है, जोकि, आने वाले भविष्य में, अचानक हथियारबंद टकराव में फूट सकता है. युद्ध के नतीजों को लेकर जिन मुद्दों पर बहुत कम बात हुई उनमें से एक है, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हुए समझौतों से उपजने वाले इलाक़ाई विवादों का फिर से उठ खड़ा होना. जर्मनी का सत्ताधारी वर्ग नहीं भूला है कि पोलैंड का शहर रॉक्लाव कभी ब्रेस्लाव हुआ करता था, जोकि 20वीं सदी में जर्मन साम्राज्य का छठा बड़ा शहर हुआ करता था.

और ना ही घोर राष्ट्रवादी और फासीवादी पोलैंड सरकार ये भूली है कि पश्चिमी यूक्रेन में ल्वीव शहर, द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले पोलैंड का सबसे बड़ा शहर हुआ करता था और उसे ल्वोव के नाम से जाना जाता था.

'बिन उकसावे वाले युद्ध' की कहानी में ये तथ्य छुपा है कि यूक्रेन युद्ध, कहीं बड़े वैश्विक टकराव का हिस्सा है, जो तृतीय विश्व युद्ध की ओर जाता है और इसे अब लोग खुलकर स्वीकार भी करने लगे हैं. सवाल ये नहीं है कि क्या अमेरिका और चीन के बीच युद्ध होगा, बल्कि ये कब शुरू होगा, कहां से टकराव फूटेगा और कहीं इसमें सामरिक और/ या रणनीतिक परमाणु हथियारों का इस्तेमाल भी होगा?- सवाल ये है.

जर्मनी के पूर्व विदेश मंत्री जोश्का फ़िशर ने हाल ही में लिखा कि “यह युद्ध नए विश्व संतुलन और 21वीं सदी में इसमें फेरबदल के बारे में है.” उन्होंने, अमेरिका और पश्चिम के दबदबे को तोड़ने के लिए रूस और चीन द्वारा आपस में “अघोषित गठबंधन कायम करने के लिए उनकी लानत मलानत की. ये दोनों देश यूरेशिया की बड़ी ताक़तें हैं जो अमेरिका की अगुवाई वाले पश्चिम के ट्रांसअटलांटिक और पेसिफ़िक गठबंधन को चुनौती दे रही हैं.”[4]

फ़ाइनेंशियल टाइम्स में विदेशी मामलों के जाने माने संवाददाता गिडियोन रैचमेन ने 27 मार्च को लिखाः

सच ये है कि चीन के राष्ट्रपति और जापान के प्रधानमंत्री ने एक ही समय में रूस और यूक्रेन की राजधानियों का प्रतिद्वंद्वी दौरा किया. पूर्वी एशिया में चीन और जापान कट्टर प्रतिद्वंद्वी हैं. दोनों देश समझते हैं कि यूरोप में संघर्ष के नतीजे से उनकी आपसी प्रतिद्वंद्विता पर असर पड़ना लाज़मी है.

यूक्रेन पर पर्दे के पीछे चीन और जापान की रस्साकशी एक व्यापक ट्रेंड का हिस्सा है. यूरो अटलांटिक और इंडो पेसिफ़िक इलाक़ों में रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता एक दूसरे को लगातार प्रभावित कर रही है. जो कुछ सामने आ रहा है वो स्पष्ट रूप से भूराजनैतिक संघर्ष जैसा कुछ है. [5]

हालांकि रैचमैन ‘बिन उकसावे वाले युद्ध’ की कहानी के धुर समर्थक हैं, फिर भी उन्होंने अपने अंतरविरोधी विश्लेषण में सख़्त चेतावनी के साथ नतीज़ा निकाला:

लेकिन इसके वैश्विक लड़ाई में तब्दील होने का ख़तरा बहुत दूर है. यूरोप में युद्ध का भड़कना पूर्वी एशिया में बढ़ते तनाव से जुड़ा हुआ है- और इन दो इलाकों के बीच बढ़ते आपसी असर से भी- लेकिन फिर भी ये 1930 के दशक से बिल्कुल अलग है. सभी पक्षों पर ये ज़िम्मेदारी है कि वो सुनिश्चित करें, कि इस बार यूरोप और एशिया की दुश्मनी एक वैश्विक ट्रैजडी में न बदल जाए.[6]

24 फ़रवरी 2022 को यूक्रेन पर रूस के हमले के कारणों को ज़रूरी ऐतिहासिक और राजनीतिक संदर्भ में जोड़ कर देखें तो इसमें कोई शक नहीं पैदा होता है कि यह युद्ध अमेरिका और इसके नेटो सहयोगियों द्वारा भड़काया गया है. यूद्ध के लिए दोष तय करने की सारी कोशिशें इस बात पर केंद्रित हैं कि “किसने पहली गोली चलाई?” और इसके लिए लंबे समय से चले आ रहे घटनाक्रम के बहुत छोटे समय में एक ख़ास हिस्से को अलग करके देखने जैसा है. 1934 में जैसा ट्राट्स्की ने बताया था, “किसी युद्ध की प्रकृति शुरुआती घटनाक्रम से तय नहीं होती (जैसे तटस्थता का उल्लंघन करना दुश्मन का घुसपैठ करना आदि) बल्कि युद्ध की मुख्य ताक़तों, पूरे घटनाक्रम और इसके नतीजों से तय होती है.” [7]

“बिन उकसावे वाले युद्ध” की हॉरर स्टोरी से अलग, फ़रवरी 2022 का हमला जटिल घटनाक्रमों का नतीजा था जोकि सिर्फ 2014 में सीआईए प्रायोजित और सुनियोजित “मैदान तख़्तापलट” से ही नहीं जुड़ता बल्कि सोवियत संघ के विघटन के कारण रूस और यूक्रेन दोनों जगह प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने से भी जुड़ता है. इस तख़्तापलट में चुनी हुई रूसी समर्थक विक्टर यानुकोविच सरकार को गिरा दिया गया था.

युद्ध शुरू करने और इसे चलाने में पुतिन की ग़लतियां और ग़लत अनुमान असल में उस वर्ग के हितों को ही प्रतिबिंत करता है जिसके हित में वो काम करते हैं. इस युद्ध का मक़सद, पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियों की ओर से डाले जा रहे मिलिटरी दबाव का प्रतिकार करना और साथ ही रूस के अंदर और काले सागर के इलाक़ों में और पड़ोस के मध्य एशिया के मुल्कों और ट्रांसकाकेसस में, प्राकृतिक संसाधनों और श्रम के शोषण में पूंजीपति वर्ग की लूट को अभूतपूर्व बनाते हुए क़ायम रखना था.

इस मक़सद में कुछ भी प्रगतिशील नहीं है, अगर सम्राज्यविरोध को छोड़ दें. जब पुतिन 'ज़ारवादी' की विरासत को आगे बढ़ाने की बात करते हैं, लेनिन, बोल्शेविकों और अक्टूबर क्रांति की निंदा करते हैं तो वो अपनी सरकार के ऐतिहासिक रूप से प्रतिक्रियावादी और दिवालिये आचरण का सबूत दे रहे होते हैं. 

मौजूदा लड़ाई एक किनारे कर दें तो, रूस और यूक्रेन की सोवियत संघ बाद वाले सत्ताधारी वर्ग की पैदाईश एक जैसी ही है. सोवियत संघ के आधिकारिक विघटन के महज तीन महीने पहले ही, इस लेखक ने 3 अक्टूबर 1991 को कीएव में एक वर्कर्स क्लब की सभा के दौरान इंटरनेशनल कमेटी के प्रतिनिधि के तौर पर बोलते हुए उन विनाशकारी नतीजों के प्रति चेताया था जो राष्ट्रवादी एजेंडे से निकलेंगे:

गणतंत्रों में सभी राष्ट्रवादी घोषणा करते हैं कि समस्याओं का हल नए “आज़ाद” मुल्क के निर्माण में मौजूद है. हमें पूछना चाहिए कि किससे आज़ाद? मॉस्को से आज़ादी की घोषणा करके राष्ट्रवादी और कुछ नहीं कर सकते, सिवाय नए देश के भविष्य से जुड़े संवेदनशील मुद्दों को जर्मनी, ब्रिटेन, फ़्रांस, जापान और अमेरिका के हाथों में सौंपने के. यूक्रेन कम्युनिस्ट पार्टी के नेता और विघटन के बाद यूक्रेन के भावी राष्ट्रपति क्रावचुक वॉशिंगटन जाते हैं और एक स्कूली छात्र की तरह कुर्सी पर सहमे बैठे होते हैं और राष्ट्रपति बुश उन्हें लेक्चर पिला रहे होते हैं....

तो सोवियत संघ की मेहनतकश जनता को कौन सा रास्ता अख़्तियार करना चाहिए? विकल्प क्या है? इसका एक ही हल हो सकता है और वो हल क्रांतिकारी अंतरराष्ट्रीयतावाद के कार्यक्रम पर आधारित हो. पूंजीवाद की वापसी, जिसके लिए राष्ट्रवादियों का उग्र प्रदर्शन केवल बहाना है, दमन के एक नए रूप को ही ला सकता है. बजाय इसके कि हरेक सोवियत राष्ट्रीयता साम्राज्यवादियों से अलग अलग जाकर मिले और उसके हाथ बंधे हों और घुटना मुड़ा हो, हथियारों और समर्थन की भीख मांगे, सभी राष्ट्रीयताओं के सोवियत वर्करों को चाहिए कि वे सच्ची सामाजिक बराबरी और लोकतंत्र के आधार पर एक संबंध क़ायम करें और इस आधार पर इन सबकी क्रांतिकारी रक्षा का कार्यभार हाथ में लें, यही 1917 की विरासत को बचाने का असल मूल्य होगा...

इस कार्यक्रम की बुनियाद में क्रांतिकारी अंतरराष्ट्रीयतावाद का नज़रिया है. आज जितनी भी समस्याएं सोवियत लोगों को झेलनी पड़ रही हैं, उसकी मूल वजह इस क्रांतिकारी अंतरराष्ट्रीयतावाद के प्रोग्राम को छोड़ देना है.[8]

इंटरनेशनल कमेटी ने 32 साल पहले जो चेतावनी थी वो दुखद रूप से सही साबित हुई. रूस और यूक्रेन के मेहनतकश लोग एक दूसरे की हत्या करने वाले संघर्ष में घसीट लिए गए हैं. अस्सी साल पहले उन्होंने अक्टूबर क्रांति की रक्षा के लिए और सोवियत संघ से नाज़ी सेना को खदेड़ने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर लड़ा था. अब, पूंजीवादी सरकारों के आदेश बजाते हुए, वे एक दूसरे पर गोली चला रहे हैं और हत्याएं कर रहे हैं.

अंतरारष्ट्रीय मज़दूर वर्ग के एकजुट होने के लिए इंटरनेशनल कमेटी का आह्वान केवल और ज़रूरी ही नहीं हो गया है, बल्कि अब वस्तुगत स्थितियां, क्रांतिकारी समाजवादी अंतरराष्ट्रीयतावाद के प्रोग्राम के आधार पर लामबंद होने के लिए और अनुकूल हो गई हैं. साथ ही साथ अमेरिकी साम्राज्यवाद में गहराता संकट और वैश्विक पूंजीवादी अंतरविरोध के तीखे होने से, अंतरराष्ट्रीय मज़दूर वर्ग के लिए व्यापक मौका है. शहरी क्षेत्रों के उभार के कारण, जहां लाखों वर्कर एक साथ रह रहे हैं, मज़दूर वर्ग के पास आर्थिक वज़न और संभावित ताक़त इकट्ठी हो गई है, ख़ासकर उन देशों में जहां बीसवीं सदी के अंतिम दशक तक सर्वाहारा कुल आबादी का एक छोटा हिस्सा हुआ करता था.

बीते दशक के दौरान वर्ग संघर्ष का निरंतर फूटना जारी रहा है. वर्ग संघर्ष की उल्लेखनीय विशेषता उसकी अंतरारष्ट्रीय प्रकृति रही है. कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी में क्रांतिकारी बदलाव, विभन्न देशों के वर्करों के बीच की सीमाएं ख़त्म कर रहा है. किसी देश में होने वला सामाजिक संघर्ष जल्द ही दुनिया भर में चर्चित हो जाता है और एक वैश्विक मुद्दा बन जाता है. यहां तक कि भाषा की युगों पुरानी बाधा भी अनुवाद और लिप्यांतरण की नई टेक्नोलॉजी से दूर हो गई है. इस टेक्नोलॉजी से किसी भी भाषा में दिये गए भाषण और दस्तावेज को आसानी से वैश्विक स्रोताओं और पाठकों तक पहुंचाया जा सकता है.

टेक्नोलॉजी में ये प्रगति उन आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं के प्रति एक वैश्विक क्रांतिकारी कार्यवाही में मददगार है, जिनका मुकाबला सभी देशों के मज़दूर वर्ग कर रहे हैं. 2022 के अंत में चीन ने अपने ज़ीरो कोविड पॉलिसी से अचानक पल्ला झाड़ लिया, इसकी वजह से दो महीने में ही दस लाख से अधिक लोगों की जान चली गई. इसने दिखाया कि एक वैश्विक संकट का राष्ट्रीय हल निकालना असंभव है. यह बुनियादी सच्चाई, गहरे होते सामाजिक संकट की वास्तविकता को चीख चीख कर उजागर कर रही है.

यूक्रेन युद्ध और मिलिटरी बजट में बेशुमार बढ़ोत्तरी ने हर देश में वर्करों की सामाजिक स्थिति के ख़िलाफ़ युद्ध का रूप ले लिया है. महंगाई, बेरोज़गारी और सामाजिक सेवाओं के बजट में कटौती ने पूरी दुनिया में हड़ताली गतिविधियों के उभार में घी का काम किया है. हर महाद्वीप में बड़े बड़े सामाजिक संघर्ष फूट पड़े हैं.

देशों के बीच मतभेदों के बावजूद, सभी देशों में मज़दूर वर्ग जिन राजनीतिक हालात का सामना कर रहे हैं उन सबमें कुछ ख़ास बातें एक समान हैं. इससे फर्क नहीं पड़ता कि वर्करों की मांग चाहे जितनी सीमित हो, उन्हें नियोक्ताओं और सरकार की ओर से तीखे विरोध का सामना करना पड़ता है.

बार बार और पूरी तीव्रता के साथ पूंजीवादी राज्य, मज़दूर वर्ग के ख़िलाफ़ युद्ध का नेतृत्व शासक वर्ग की ओर से अपने हाथ में ले रहा है. आर्थिक विकास के मामले में अलग अलग स्थितियों वाले श्रीलंका और फ्रांस जैसे देशों में मज़दूर वर्ग अपने मुख्य दुश्मन यानी राज्य के मुखिया से मुकाबला ले रहा है- श्रीलंका में राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे से और फ्रांस में राष्ट्रपति एमैनुएल मैक्रों से. उनके लोकांत्रिक शब्द जाल के इस्तेमाल के बावजूद जब भी राजनीतिक मौका आता है, पुलिस और मिलिटरी के सहारे उनके फैसले नग्न रूप से तानाशाही वाला आचरण अख़्तियार कर लेते हैं. जिस तरह मौजूदा बुर्जुआ लोकतंत्र हर जगह एक जैसे ही ध्वस्त हो रहा है, वो लेनिन के विश्लेषण की ही पुष्टि करता हैः 'राजनीतिक प्रतिक्रिया साम्राज्यवाद की चारित्रिक विशेषता है.'[9]

इसी वजह से वर्ग संघर्ष का तर्क राज्य के ख़िलाफ़ एक राजनीतिक संघर्ष का रूप ले लेता है और मज़दूरों की एक स्वतंत्र सत्ता बनाने की ज़रूरत पर जोर देता है. श्रीलंका की इंटरनेशनल कमेटी की ओर से वर्करों और ग्रामीण ग़रीबों का एक सामाजवादी और लोकतांत्रिक कांग्रेस बुलाने का आह्वान और फ़्रांस के आईसीएफ़आई की ओर से मैक्रों सरकार को गिराने की मांग, ये दोनों ही मांगें, पूंजीवादी राज्य और मज़दूर वर्ग के बीच बढ़ते टकराव के मद्देनज़र ज़रूरी कार्यवाहियां हैं.

20वीं सदी का एक बुनियादी सबक है कि केवल समझौताविहीन पूंजीवाद विरोध और समाजवाद के प्रोग्राम के आधार पर मज़दूर वर्ग की राजनीतिक लामबंदी के द्वारा ही साम्राज्यवादी युद्ध के ख़िलाफ़ संघर्ष को सफलता पूर्वक अंजाम दिया जा सकता है. युद्ध का विरोध करने वाले वे सभी प्रस्ताव फ़ेल होने को अभिशप्त हैं जिनमें युद्ध के कारणों को नज़रअंदाज़ किया जाता है या छुपाया जाता है, जबकि ये कारण राष्ट्र राज्य के तंत्र और पूंजीवादी मुनाफ़ा तंत्र में ही निहित होते हैं.

मज़दूर वर्ग की लामबंदी में सबसे बड़ी बाधा है ट्रेड यूनियनों में पूंजीवाद समर्थक नौकरशाही, प्रतिक्रियावादी मज़दूर और फर्जी सामाजवादी पार्टियों और संपन्न मध्य वर्ग की ढेरों छद्म वामपंथी पार्टियों का राजनीतिक असर. उनकी धोखाधड़ी के असर से मुक्त होना ही होगा.

मज़दूर वर्ग में एक वैकल्पिक क्रांतिकारी नेतृत्व खड़ा करने में इंटरनेशनल कमेटी ने काफ़ी हद तक सफलता हासिल की है. रैंक एंड फ़ाइल कमेटीज़ का इंटरनेशनल वर्कर्स अलायंस (आईडब्ल्यूए-आरएफ़सीए) असल में फ़ैक्ट्री कमेटियां बनाने के ट्रांजिशन प्रोग्राम के लिए, ट्रॉटस्की के नज़रिए का ठोस रूप है. उन्होंने चौथे इंटरनेशनल में कहा था कि 'बुर्जुआ समाज के ख़िलाफ सामूहिक संघर्ष के कार्यभार को पूरा करने वाले स्वतंत्र जुझारू संगठन हर संभव तरीक़े से बनाने होंगे; और अगर ज़रूरी हो तो ट्रेड यूनियनों से आमना सामना होने पर भी पीछे नहीं हटना चाहिए.'10]

इसके अलावा, इंटरनेशनल कमेटी द्वारा आईडब्ल्यूए-आरएफ़सीए बनाने की जो प्रेरणा है वो साम्राज्यवाद के युग में ट्रेड यूनियनों के भविष्य को लेकर ट्रॉटस्की के विश्लेषण पर आधारित है. उनकी हत्या के बाद उनके डेस्क पर जो अधूरे नोट्स मिले थे उसमें उन्होंने लिखा है; 'पूरी दुनिया की आधुनिक ट्रेड यूनियनों में एक सामान्य विशेषता दिखती है, या ठीक से कहें पतन; कि वे लगातार राज्य की सत्ता के क़रीब जा रही हैं.'

इसलिए ये ज़रूरी है कि, 'जनता को लामबंद किया जाए, न केवल बुर्जुआ वर्ग के ख़िलाफ़, बल्कि ट्रेड यूनियन के अंदर मनमानी सत्ता के ख़िलाफ़ भी और उन नेताओं के ख़िलाफ़ भी जो इसे थोप रहे हैं.'[11]

जब शासक वर्ग के निम्न बुर्जुआ छद्म वाम एजेंट यूनियनों का विरोध करने के लिए आईसीएफ़आई की निंदा करते हैं तो असल में वे साम्राज्यवाद समर्थक और यूनियनों के कारपोरेट परस्त नौकरशाहों की ओर से, मज़दूर वर्ग पर थोपी जा रही तानाशाही को नकारने के लिए इंटरनेशनल कमेटी पर हमला बोल रहे होते हैं. उन मज़दूरों के संघर्ष से दूर रहने की बजाय, जोकि अमेरिका में एएफ़एल-सीआईओ (अमेरिकन फ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर एंड कांग्रेस इंडस्ट्रियल आर्गेनाइजेशन) के पुलिस कर्मियों की निगरानी वाले कैद में हैं, जर्मनी में आईजी मेटल, फ्रांस में सीजीटी और इसी तरह पूरी दुनिया में हैं, आईडब्ल्यूए-आरएफ़सीए ट्रेड यूनियों के भीतर अनगिनत संघर्षों में शामिल है और नौकरशाही वाले तंत्र के ख़िलाफ़ विद्रोह को मज़बूत करने और प्रोत्साहित करने के लिए हर संभव कोशिश कर रहा है. अक्टूबर 2022 में 5000 ऑटो वर्करों ने विल लेमैन के लिए वोट किया, जोकि यूएडब्ल्यू के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार थे. और उन्होंने ऑटो उद्योग पर वर्करों के नियंत्रण और यूनियन तंत्र के ख़ात्मे का आह्वान किया था. यह आईडब्ल्यूए-आरएफ़सीए के बढ़ते प्रभाव और उसके सांगठनिक और राजनीतिक संभावनाओं का सबूत है.

इंटरनेशनल वर्कर्स अलायंस ऑफ़ रैंक एंड फ़ाइल कमेटीज़ पूरी दुनिया में एक नेटवर्क बना रहा है ताकि पूंजीवादी शासन और कारपोरेट सत्ता के ख़िलाफ़ वैश्विक स्तर पर वर्ग संघर्ष की रणनीति और कार्यनीति को विकसित करने में मदद मिल सके. इसका उद्देश्य केवल दबाव डालने और प्रतिक्रियावादी नौकरशाही में सुधार लाना नहीं है बल्कि फैसले लेने के सभी अधिकार और ताक़त को रैंक एंड फ़ाइल के मातहत लाना है.

इंटरनेशनल यूथ एंड स्टूडेंट्स फ़ॉर सोशल इक्वालिटी (आईवाईएसएसई) लोगों को मार्क्सवादी के तौर पर शिक्षित करने के लिए अपने कामों का विस्तार कर रहा है ताकि सभी प्रकार के राष्ट्रीय अवसरवाद और स्टालिनवाद के ख़िलाफ़ चौथे इंटरनेशनल और ट्रॉटस्की द्वारा छेड़े गए संघर्ष के प्रति समझदारी विकसित हो सके और वे मज़दूर वर्ग की ओर उन्मुख हो सकें और समाजवादी क्रांति की वैश्विक पार्टी के निर्माण के लिए उनकी असीमित ऊर्जा को दिशा दी जा सके.

वर्ल्ड सोशलिस्ट वेब साइट अपने लगातार प्रकाशन के 25वें साल की खुशी मना रही है. यह वेबसाइट, वर्ग संघर्ष के विश्लेषण और इसके राजनीतिक कवरेज की संभावना और गहराई को लगातार विकसित कर रही है. और इस ज़रूरी सैद्धांतिक काम के आधार पर यह अंतरराष्ट्रीय मज़दूर वर्ग के संघर्ष में ट्रॉटस्कीवाद के प्रभाव का प्रसार कर रही है.

मई दिवस रैली इन सफ़लताओं पर खड़ी होगी और मज़दूर वर्ग की एकता के इस ऐतिहासिक दिन का उत्सव, युद्ध के खिलाफ़ बढ़ते संघर्ष और मज़दूर वर्ग के हाथ में सत्ता सौंपने और पूरी दुनिया में समाजवाद को स्थापित करने को समर्पित है.

[1] Jörn Leonhard, Pandora’s Box: A History of the First World War, translated by Patrick Camiller (Cambridge, MA: The Belknap Press of Harvard University Press, 2018), pp. 62-63

[2] “Into the Maelstrom,” in David North, A Quarter Century of War: The U.S. Drive for Global Hegemony 1990-2016, (Oak Park: Mehring Books, 2016), p. 277.

[3] Ibid

[4] “Former German foreign minister Joschka Fischer declares Ukraine war is ‘Global power struggle for future world order’”, by Peter Schwarz, World Socialist Web Site, 4 April 2023, https://www.wsws.org/en/articles/2023/04/05/ijhm-a05.html

[5] “China, Japan and the Ukraine war,” by Gideon Rachman, Financial Times, March 27, 2023, https://www.ft.com/content/9aa4df57-b457-4f2d-a660-1e646f96c8cb

[6] Ibid

[7] “War and the Fourth International” by Leon Trotsky, Writings of Leon Trotsky, 1933-34, (New York: Pathfinder, 1975), p. 308

[8] “After the August Putsch: Soviet Union at the Crossroads,” by David North, Fourth International, Fall-Winter 1992, Volume 19, Number 1, p. 110

[9] “Imperialism and the Split in Socialism,” V.I. Lenin, Collected Works, Vol. 23.

[10] “The Death Agony of Capitalism and the Tasks of the Fourth International,” (New York, 1981), p. 8

[11] “Trade unions in the epoch of imperialist decay,” in Marxism and the Trade Unions (New York: 1973), pp. 9-10

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