हिन्दी

किंग चार्ल्स तृतीय और क्वीन कैमिला की ताजपोशी: ब्रिटिश राजशाही का लाइलाज संकट

यह हिंदी अनुवाद अंग्रेजी के मूल लेख “The coronation of King Charles III and Queen Camilla: The terminal crisis of the British monarchy” का है, जो मूलतः 5 May 2023 को प्रकाशित हुआ था I

भरपूर मीडिया कवरेज और दान स्वरूप एक दिन की बैंक छुट्टी के साथ किंग चार्ल्स तृतीय और रानी कैमिला का भव्य ताजपोशी समारोह ऐसे आयोजित हुआ जैसे ये राष्ट्रीय एकजुटता वाला कोई क्षण हो। इस ताजपोशी का इससे ज़्यादा कोई और मतलब नहीं निकलता।

विरासत में मिले विशेषाधिकार और बेशुमार दौलत का प्रदर्शन करना, उग्र सैन्यवाद और ब्रिटिश साम्राज्यवाद का महिमामंडन, जिसमें लूटे गए रत्नों का दिखावा करना और उन्हें विभिन्न मुकुटों में सजाना, राजकीय छड़ी (शासकीय दंड) और ताबेदारी में लगे भारी संख्या में कर्मचारी और इनके साथ आम कर दाताओं पर 25 करोड़ पाउंड का बोझ, ये सब भोंड़ी अश्लीलता है— ये मुसीबत झेल रहे दसियों लाख मज़दूरों और उनके परिवारों का डंके की चोट पर अपमान है।

तत्कालीन वेल्स के प्रिंस के तौर पर 2022 में किंग चार्ल्स तृतीय, अपनी मां क्वीन एलिजाबेथ द्वितीय की ओर से भाषण पढ़ते हुए। [फ़ोटोः एनाबेल मोलर / सीसी बाय 2.0] [Photo by Annabel Moeller / CC BY 2.0]

राजशाही पर पुनर्विचार करने का मौका देने की बजाय, इसकी लोकप्रियता को फिर से स्थापित करते हुए, यह ताजपोशी इस सड़ चुकी संस्था के प्रति लोगों के घट रहे समर्थन को ही साबित करेगी, ख़ासकर नौजवान पीढ़ी में। यही इसके लाइलाज संकट पर मुहर लगाती है।

दशकों तक अपनी मां की छाया में रहने के बाद चार्ल्स 74 साल की उम्र में किंग बने, इसके साथ ही वो ब्रिटेन के सबसे उम्रदराज़ राजा भी हो गए हैं। लेकिन क्वीन एलिज़ाबेथ द्वितीय जैसी उन्हें लोकप्रिय इज्ज़त नसीब नहीं है, उन्हें आम तौर पर एक हास्यास्पद शख़्सियत माना जाता है। किंग चार्ल्स रहस्यवादी हैं, जिन्होंने लंबे समय तक छद्म विज्ञान, नीम हकीम के इलाज, जिसमें होम्योपैथी, आध्यात्मिक स्वःइलाज और फलों के रस और क़ॉफ़ी से कैंसर के इलाज का खूब प्रचार किया। वो भ्रष्टाचार में डूबे एक ऐसे परिवार के मुखिया बने हैं जो धन का लालची और दौलत को सफाचट करने वाला है जिसे राजशाही के कारण एक राजनीतिक कवच हासिल है।

रानी एलिज़ाबेथ-द्वितीय की मौत पर डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस की टिप्पणी:

उनकी मौत ऐसे समय हुई है जब आर्थिक हालात ख़तरनाक़ हैं, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के लिए सामाजिक और राजनीतिक संकट चरम पर है और महामंदी के बाद जीवन स्तर में सबसे बुरी गिरावट आई है। इसके अलावा यूरोप की ज़मीन पर रूस के ख़िलाफ़ नैटो का छद्म युद्ध चल रहा है। इन सबके साथ वर्ग संघर्ष की लहर बढ़ रही है जिसके एक आम हड़ताल में फूट पड़ने का ख़तरा मंडरा रहा है।

शासक वर्ग ऐसे समय में एक भयानक आंधी का सामना कर रहा है जब उसके पास राज्य का कोई लोकप्रिय प्रतिनिधि नहीं है जिसके कंधे पर राष्ट्रीय एकता का मिथक गढ़ कर सामाजिक टकरावों को दबाया जा सके... आज शासक वर्ग की सबसे बड़ी उम्मीद यही है कि चार्ल्स का कार्यकाल छोटा होने के कारण बहुत सावधानी से तैयार किए गए प्रिंस विलियम के पास, जनता के बीच राजशाही की खोती हुई इज्ज़त को बहाल करने का मौका मिल सके।

घटनाओं ने इस आंकलन को सही ठहराया है और साबित किया है कि चार्ल्स का किंग और राज्य का मुखिया बनना ऐसे समय हुआ है जब ब्रिटिश साम्राज्यवाद गहरे संकट में है, लेकिन वे इसे ऐतिहासिक सामाजिक परिणति के तौर पर दिखा रहे हैं।

अतीत की और हालिया समस्याओं पर पर्दा डालने के लिए समारोह में तरक़ीबें लगाई गईं। इंग्लैंड के चर्च के मुखिया के तौर पर चार्ल्स 'धर्म का रखवाला' होने का दावा पेश नहीं करेंगे क्योंकि पूरी आबादी के महज 16 प्रतिशत लोग ही अब इसके अनुयायी रह गए हैं और 40 फीसद लोगों का कहना है कि वे किसी धर्म को नहीं मानते हैं। दिलचस्प है कि इस समारोह में अन्य धर्मों के धर्मगुरु भी शामिल होंगे जैसे यहूदी, सुन्नी और शिया मुस्लिम, सिख, बौद्ध, हिंदू, जैन, बहाई और जोरोस्ट्रियन। इसके अलावा केवल प्रिंस विलियम एक नाटकीय रस्म -'राजशाही खून के प्रति सम्मान'- अदा करेंगे और किंग के प्रति वफ़ादारी की क़सम खाएंगे। जैसा होता है, इस समारोह में शाही परिवार के ड्यूक शामिल होंगे जैसे, स्कैंडल ग्रस्त प्रिंस एंड्र्यू और पारिवारिक मान्यताओं से दूर जा चुके प्रिंस हैरी। जबकि डचेज़ ऑफ़ ससेक्स मेगान समारोह से दूर, कैलीफ़ोर्निया में ही रहेंगी।

ताजपोशी पर बेशुमार खर्च के मद्देनज़र, अब इसकी 'शालीनता' का प्रचार करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाया जा रहा है, कम से कम 1953 में एलिज़ाबेथ की ताजपोशी से तुलना करके। हालांकि दिखावे और तड़क भड़क में कोई कमी नहीं है।

ब्रिटेन की सैन्य ताक़त का सबूत देने के लिए, इस समारोह में सशस्त्र बल के 6000 सैनिक जिसमें सेना से शीर्ष अधिकारी चीफ़ ऑफ़ डिफ़ेंस स्टाफ़ एडमिरल सर टोनी रैडकिन और चीफ़ ऑफ़ जनरल स्टाफ़ जनरल सर पैट्रिक सैंडर्स हिस्सा लेंगे। इसके अलावा तीनों सेनाओं की ओर से 68 विमान हवाई क़रतब दिखाएंगे। लेकिन शाही उद्घोषकों ने ये बताने की कोशिश की कि एलिज़ाबेथ की ताज़पोशी के दौरान रॉयल एयरफ़ोर्स और राष्ट्रमंडल के 600 विमानों की तुलना में ये तो कुछ भी नहीं है, कि, ताजपोशी समारोह में 2,000 मेहमान शामिल होंगे जबकि एलिज़ाबेथ के समय 8,000 से अधिक मेहमान थे। शाहीपरिवार के एक सूत्र ने डेली मिरर को बताया, 'देश में जीवन यापन के संकट और इससे जूझ रहे लोगों के बारे में किंग को बखूबी पता है।'

इंग्लैंड, लंदन में सेसिल बीटन द्वारा जून 1953 में बनाई गई महारानी एलिजाबेथ द्वितीय की ताजपोशी की पेंटिंग। [फोटो: सेसिल बीटन/रॉयल कलेक्शन आरसीआईएन 2153177] [Photo: Cecil Beaton/Royal Collection RCIN 2153177]

इस तरह की सनक भरी तैयारियां शासक वर्ग की बेचैनी को दर्शाती हैं, जबकि दूसरी ओर राजशाही को लेकर जनता में ऐतिहासिक रूप से समर्थन घट गया है। केवल 29 फीसदी ब्रिटिश नागरिक राजशाही को 'बहुत महत्वपूर्ण' मानते हैं, जबकि 25 फीसदी लोग मानते हैं कि ये 'क़तई महत्वपूर्ण नहीं' है और इसे ख़त्म कर देना चाहिए। नौजवानों में 78 फीसद की राजशाही में कोई दिलचस्पी नहीं है और 38 फीसद इसे ख़त्म होते देखना चाहते हैं।

'डेली मिरर' ने अपने पाठकों से रायशुमारी की जिसमें 52 फीसद का सोचना था कि चार्ल्स को अपनी ताजपोशी का खर्च अपनी जेब से भरना चाहिए। 'गार्जियन' ने चार्ल्स की गोपनीय निजी बेशुमार दौलत की पड़ताल की रिपोर्ट छापी थी, जिसके बाद लोगों का ये नज़रिया सामने आया। इस पड़ताल में पाया गया कि चार्ल्स की दौलत बढ़ कर 2 अरब पाउंड हो गई है। कहा जा रहा है कि क्वीन से विरासत में मिली टैक्स फ्री दौलत का ये आंकलन थोड़ा कम कर के ही बताया गया है।

ताजपोशी के विरोध की सारी संभावनाओं को दबाने के पुख़्ता इंतज़ाम किए गए। 11,500 से अधिक पुलिस लगाई जाएगी जिनके हाथ में हाल ही में लाए गए निरंकुश क़ानून 'पब्लिक ऑर्डर बिल' का चाबुक है, जिसके तहत सड़क और रेल पटरी को ब्लॉक करने पर 12 महीने की सज़ा और इमारतों के बाहर 'ताला मारने' के लिए छह महीने की सज़ा और असीमित ज़ुर्माने का प्रावधान है। गृह मंत्रालय ने सभी नागरिक संगठनों को धमकी भरे संदेश भी भेजे।

ताजपोशी की पूरी प्रक्रिया- मान्यता, शपथ, पवित्र तेल से अभिषेक, संस्कार, मुकुट पहनाना, सिंहासनासीन और फिर वफ़ादारी का प्रदर्शन, इसके साथ ही क्वीन की ताजपोशी- ये सब इतना हास्यास्पद है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के लिए इसकी रणनीतिक अहमियत का महत्व भी कमतर लगने लगेगा।

समारोह में ऐसी चीजें नुमाया होती हैं, जो एक हज़ार सालों के इतिहास की याद ताज़ा कराती हैं, जैसे- भाग्यशाली रत्न, सत्ता की तलवार, आभूषणों से जड़ित दमकती तलवार, दया की तलवार, गंभीरता और अक्लमंदी का ब्रेसलेट और पवित्र शाही पोशाक जिससे न्याय-परायणता का बोध होता है, आदि। इसके अलावा इंग्लिश ताज़ को बाइबिल के राजाओं साओल, डेविड और सोलोमोन से जोड़ने के लिए चार्ल्स का अभिषेक इजराइली जैतून के तेल से होता है, इसमें ये निहित है कि वो भी इस पृथ्वी पर ईश्वर के दूत हैं।

'राजा के दैवीय अधिकार' का ज़िक्र अभी भी यूनाइटेड किंगडम के सरकारी शासन का अंग बना हुआ है जबकि 374 साल पहले इसी सिद्धांत पर चिपके रहने के कारण हुए गृह युद्ध में चार्ल्स प्रथम को फांसी पर लटका दिया गया था। राजशाही की पुनः स्थापना 1660 में चार्ल्स द्वितीय के समय हुई, लेकिन अब राजशाही को संसद के मातहत, उभरती बुर्जुआजी के महज एक राजनीतिक उपकरण के तौर पर ला दिया गया था। 1688 में प्रसिद्ध क्रांति के बाद इसके बारे में बक़ायदा नियम बनाए गए और किंग विलियम तृतीय और क्वीन मैरी ने शपथ ग्रहण किया तो उन्होंने संसद में बने क़ानून को सर्वोच्च मानने की क़सम खाई।

इसके बाद की सदियों में, राजशाही और सामंतवाद के अन्य अवशेषों को बुर्जुआ शासन की सेवा में लगा दिया गया। जैसा कि डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस ने पिछले सितम्बर में सम्राट के रूप में चार्ल्स तृतीय की सार्वजनिक उपस्थिति पर टिप्पणी की थीः-

समारोह और इसमें अंतहीन दिखावे से सरकार की ताक़त, राष्ट्र की सर्वश्रेष्ठता और मौजूदा सामाजिक व्यवस्ता की श्रेष्ठता का संदेश दिया जा रहा है, जबकि इस सामाजिक व्यवस्था में गै़रबराबरी की गहरी खाई है और यहां उम्मीद की जा रही है कि हरेक व्यक्ति, परम्परा और उन अभिजात्य सत्ताधारियों के प्रति अनिवार्य रूप से सम्मान दिखाए, जिन्होंने इन परम्पराओं को बनाया है।

संभवतया चार्ल्स के ताजपोशी समारोह में इसीलिए दबाने छुपाने की बजाय, किंग की हैसियत को सरकार के मुखिया के तौर पर स्थापित करने की रस्म को मजबूती के साथ और खुल्लम खुल्ला करने का फैसला लिया गया। बड़े तामझाम के साथ लैंबेथ पैलेस में कैंटरबरी के आर्कबिशप 'द होमेज ऑफ़ द पीपुल' रस्म की अगुवाई करेंगे, जिसे चार्ल्स और सुनक सरकार से सलाह मशविरे के बाद 'होमेज ऑफ़ पीयर्स' में बदल दिया गया है। असल में इस रस्म में 15 करोड़ ब्रिटिश नागरिकों और 15 राष्ट्रमंडल सरकारों से कहा जाता है कि वो 'सामूहिक शपथ' में शाही ताज़ के प्रति अपनी वफ़ादारी घोषित करें।

इस रस्म में धर्मगुरु वाक्य पढ़ते हैंः 'सभी अपनी इच्छा से, मठ में या जहां भी हों एक साथ कहें:- मैं शपथ लेता/लेती हूं कि क़ानून के मुताबिक़, मैं आपके और अपके उत्तराधिकारियों के प्रति सच्ची वफ़ादारी निभाऊंगा/निभाऊंगी। ईश्वर खैर करे।'

ये अश्लीलता है, जनता को सरकार के बिना चुने हुए मुखिया के मातहत लाना, जिसकी हैसियत विरासत में मिले अधिकार हैं, इसे चाटुकारों द्वारा 'आधुनिकता' के उदाहरण के तौर पर पेश किया जा रहा है। इसमें लेबर पार्टी की नेशनल कैंपेन कोआर्डिनेटर शबाना महमूद एमपी भी शामिल हैं, जिन्होंने इसकी तारीफ़- 'समारोह और राजशाही को जनता के क़रीब लाने के एक शानदार तरीके'- के रूप में की है।

इसमें निजी वफ़ादारी को सिर्फ किंग को सौंपना ही नहीं है, बल्कि उस पूंजीवादी सरकारी तंत्र के प्रति भी वफ़ादारी घोषित करना है जिसके मुखिया किंग हैं। बढ़ते सामाजिक तनाव, वर्गीय टकरावों और यूरोप की ज़मीन पर पहले से छिड़ चुके युद्ध के समय में राष्ट्रीय एकजुटता बहाल करने के तौर पर इस ताजपोशी की परिकल्पना की गई थी। ये तब आयोजित हो रहा है जब ब्रिटेन में हड़तालों की आंधी चल रही है और इंग्लिश चैनल के उस पार फ्रांस में मैक्रों के तानाशाही पेंशन सुधारों को थोपने के ख़िलाफ़ जनता सड़कों पर है और वहां मई-जून 1968 के बाद अब तक की सबसे बड़ी हड़तालें और प्रदर्शन हो रहे हैं। शायद यही वजह रही कि छह हफ़्ते पहले किंग चार्ल्स की पहले से सुनियोजित फ्रांस यात्रा को आनन फानन में रद्द कर दिया गया। ब्रिटेन के पूर्व राजदूत पीटर रिकेट्स ने चेताया था कि वर्सेइल्स पैलेस में चार्ल्स के लिए आयोजित रात्रिभोज कहीं फ्रांसीसी क्रांति की याद न दिला दे।

महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय से लेकर चार्ल्स तृतीय तक

क्वीन एलिज़ाबेथ, वॉल्टर बैगहॉट के द इंग्लिश कांस्टीट्यूशन (किताब के रूप में 1867 में प्रकाशित) की छात्रा थीं। उन्हें 1938 में एटॉन कॉलेज में हफ़्ते में दो बार निजी ट्यूशन में इसे पढ़ाया जाता था। उनके अंकल एडवर्ड ने जब 1936 में पद त्यागा तब प्रिंसेस की उम्र 12 साल की थी। इसके वाद वो ताज़ की उत्तराधिकारी बन गईं।

फ़ोटोः वॉल्टर बैगहॉट (1826-1877), नार्मन हर्स्ट द्वारा बनाई गई पेंटिंग।

1848 में चार्टिस्ट आंदोलन और अमेरिकी गृह युद्ध के बाद ब्रिटिश शासक वर्ग में पैदा हुए केंद्रीय भय को बैगहॉट ने अपने आलेखों में जगह दी थी। उन्होंने लोकतांत्रिक, बराबरी, गणतंत्रवादी और समाजवादी विचारों के खिलाफ़ गला फाड़ कर चेतावनी दी थी। बैगहॉट ने अपनी किताब में मज़दूर वर्ग के प्रति ब्रिटिश सत्ताधारी वर्ग के भय और नफ़रत को ज़ाहिर किया था।

उन्होंने लिखा कि निम्न वर्ग - पहले दर्जे की बुराई- के राजनीतिक गठजोड़ को रोकने के लिए उस भीड़ पर नियंत्रण पाने के तरीके खोजने होंगे जो 'दो हज़ार सालों के मुकाबले मुश्किल से अधिक सभ्य हो पाई है।' यह राजशाही के नेतृत्व में बने राष्ट्रीय संविधान का अनिवार्य 'नाटकीय' तत्व है, जो 'धर्म की मजबूती के साथ हमारी सरकार को भी दृढ़ता प्रदान करता है।'

वो आगे लिखते हैंः 'सबसे आसानी से सम्मान देने को प्रोत्साहित करने वाला ये तत्व नाटकीय तत्व है, जो हमारी इंद्रियों को अपील करता है, जो महान मानवीय विचार होने का दावा करता है, जो मनुष्य से थोड़ा ऊपर होने का आभास देता है। वो अपने दावों में मिथकीय होता है; अपनी कार्रवाईयों में रहस्यमयी, आंखों के लिए भव्य, पल भर के लिए सजीव दिखता है और फिर ग़ायब हो जाता है; जो खुला भी है और छुपा भी, जो संदेहास्पद है लेकिन दिलचस्प भी, जो काल्पनिक है पर दृष्टिगोचर भी है और फिर भी अपने नतीजे में दृष्टिगोचर होने से अधिक, खुद के कुछ होने का ढोंग करता है।'

एलिज़ाबेथ द्वितीय ने दौलत और प्राधिकार के तौर पर जो उन्हें भूमिका दी गई थी उसे बखूबी निभाया, बिल्कुल बैगहॉट के उस दिशा निर्देशों के अनुरूप, कि 'सम्राट अलौकिक बना रहे। ये बिल्कुल साफ़ रहना चाहिए कि वो कुछ भी ग़लत नहीं करता। उसमें बहुत मीन मेख नहीं निकाला जाना चाहिए। वो बिल्कुल किसी दूसरे ग्रह का और एकांतवासी होना चाहिए... उन लोगों के लिए बिल्कुल सामने दिखाई देने वाले एकता के प्रतीक के तौर पर, जो इतने ही शिक्षित हैं कि उन्हें एक प्रतीक में भरोसा हो।'

फ़ाइलः 10 जुलाई 2018 के इस फ़ाइल फ़ोटो में बंकिंघम पैलेस में शाही परिवार के सदस्य इकट्ठा हैं, बाएं से प्रिंस चार्ल्स, कॉर्नवाल की डचेज़ कैमिला, प्रिंस एंड्र्यू, क्वीन एलिज़ाबेथ द्वितीय, डचेज़ ऑफ़ ससेक्स मेगन, प्रिंस हैली, प्रिंस विलियम और डचेज़ ऑफ़ कैंब्रिज केट। लंदन में उस समय बंकिंघम पैलेस के ऊपर रॉयल एयरफ़ोर्स के विमान को उड़ान भरते पूरा शाही परिवार देख रहा था। (फ़ोटोः एपी/ मैट डनहम) [AP Photo/Matt Dunham]

राजशाही बने रहने का बुनियादी मकसद होता है मज़दूर वर्ग और राष्ट्र की वर्गीय प्रकृति पर पर्दा डालना। बैगहॉट ने लिखा है, 'राजशाही का काम संवैधानिक तौर पर ऐसा होता है, जिसका ज़िक्र मैंने अपने अंतिम लेख में विस्तार से किया है और उसका यहां दोबारा व्याख्या करने की ज़रूरत नहीं है। इसका काम है छद्मवेष। ये हमारे शासकों को बदलाव करने की इजाज़त देता है और वो भी बिना दिमाग विहीन जनता की जानकारी में लाए। अंग्रेज़ जनता एक चुनी हुई सरकार के लायक नहीं है; अगर वो ये जान जाएंगे कि वो इसके कितने क़रीब हैं तो वो हैरान रह जाएंगे और कांपने लग जाएंगे।'

बैगहॉट ने चेतावनी दी थी कि 'निम्न वर्गों की श्रेष्ठता सिर्फ उच्च वर्गों के महान विवेक और महान दूरदर्शिता से ही रोका जा सकता है।' लेकिन चार्ल्स जैसे बेहद अलोकप्रिय शख़्सियत की ताज़पोशी, राजशाही को एकता की ताक़त बनने से खुद ही महरूम करती है। चार्ल्स को उसके दोस्तों ने ही 'बेवकूफ़' (ओलंपियन व्हिंगर) बताया है। बैगहॉट ने इस पर ज़ोर दिया है कि शाही परिवार समय समय पर शानदार और प्यारे समारोहों के मार्फत राजनीति में तड़का लगाने का काम करते हैं।

बैगहॉट ने जोर दे कर कहा कि 'राजशाही मौसम के हिसाब से अपने अच्छे और सुंदर आयोजनों के माध्यम से राजनीति में रस घोलती है। ये सरकारी कामकाज में गैरज़रूरी तथ्यों को जोड़ने जैसा है, लेकिन वे 'तथ्य' आदमी के दिल से निकलते हैं और उसके विचार पर हावी हो जाते हैं।' लेकिन प्रिंस एंड्र्यू और जेफ़री एपस्टीन के संबंधों के चारो ओर मची गंध और प्रिंस हैरी, चार्ल्स, कैमिला और विलियम के बीच भद्दी लड़ाईयां वे 'तथ्य' हैं जो मौजूदा संकट की ओर इशारा करते हैं। 1930 के दशक के बाद, ब्रिटिश पूंजीवाद अबतक के सबसे गहरे आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक संकट का सामना कर रहा है और इस बीच शाही परिवार के प्रति जनता के समर्थन की कलई खुल रही है।

1925 में लिखे अपने लेख- 'ब्रिटेन कहां जा रहा है?'- में ट्रॉट्स्की ने विस्तार से लिखा है कि आम तौर पर और गंभीर संकट के दौर में ब्रिटिश राजशाही की भूमिका क्या होती है, और इस बारे में लेबर पार्टी के नेताओं के सिद्धांतविहीन बर्ताव की जमकर आलोचना की है, और इनके अनुभवसंगत प्रतिक्रियावादी, सतत परिवर्तनवादी और गैर ऐतिहासिक दर्शन जैसी नीतियों की भी मजम्मत की है।

'राजशाही, जैसा वे घोषित करते हैं, देश की प्रगति में बाधा नहीं पहुंचाती और अगर चुनाव के सारे खर्चे जोड़ लें तो ये एक राष्ट्रपति के मुकाबले कम खर्च में काम करती है, आदि आदि। लेबर पार्टी के नेताओं की ओर से दिए गए इन भाषणों से उनके 'पागलपन' का ही संकेत मिलता है, जिसे कूढ़मगजी के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता।'

लिओन ट्रॉट्स्की

इन दावों को काटते हुए ट्राट्स्की ने कहा था, 'जबतक संसद बुर्जुआ शासन का एक साधन है और जबतक बुर्जुआ वर्ग को गैर संसदीय हथकंडे अपनाने की ज़रूरत नहीं पड़ती, तबतक राजशाही कमज़ोर ही रहेगी। लेकिन अगर ज़रूरत पड़ी तो बुर्जुआ वर्ग गैर संसदीय अधिकारों के इस्तेमाल के लिए राजशाही का इस्तेमाल कर सकता है, इसका ये भी मतलब है कि वो मज़दूर वर्ग के ख़िलाफ़ असली ताक़त लगा सकता है।'

ब्रिटिश राजशाही के पास बेशुमार ताक़त है। सामान्य हालात में, राज्य के मुखिया के रूप में राजा की भूमिका, जिसमें क़ानून के लिए शाही अनुमति की ज़रूरत के अलावा राजनेताओं और जनरलों द्वारा किंग के प्रति वफ़ादारी की क़समें खाना, भले ही पुरानी परम्परा, अवशेष और रस्मी लगते हों, लेकिन जब वर्गों के बीच टकराव विस्फ़ोटक बिंदु तक पहुंच जाता है तो लोकतंत्र तानाशाही को रास्ता दे देता है और राजशाही की 'प्रतीकात्मक सत्ता', जिसमें किंग तीनों सेनाओं का अध्यक्ष होता है, वास्तविक बन जाती है और इनका उल्लंघन राजद्रोह हो जाता है।

इस समझदारी के साथ, ट्रॉट्स्की ने नतीजा निकाला था कि:

एक समाजवादी के लिए राजशाही का सवाल आज के बहीखाते से नहीं तय होता, खास कर तब जब पूरा बहीखाता ही धांधली से भरा पड़ा हो। ये समाज के पूरी तरह उलट पटल जाने और शोषण के सारे तत्वों को ख़त्म करने का मामला है। राजनीतिक और दार्शनिक दोनों लिहाज से इस कार्यभार में राजशाही के साथ किसी तरह का सुलह समझौता मुमकिन नहीं है।

आज मज़दूर वर्ग को पूरी बुर्जुआ शासन व्यवस्था, इसकी पार्टियों, इसके राज्य उपकरण और राजशाही के साथ टकराव की ओर धकेला जा रहा है, ऐसे समय में जब मज़दूर- वर्गीय दमन, ग़रीबी और युद्ध के ख़ात्मे की ज़रूरत महसूस कर रहे हैं, बंकिंघम पैलेस में मौजूद राजनीतिक मंदबुद्धि, चार्ल्स तृतीय, बुर्जुआ वर्ग का अंतिम सहारा साबित हो सकता है।

Loading