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मोदी सरकार, जानी मानी भारतीय लेखिका अरुंधति रॉय और कश्मीरी एक्टिविस्ट पर 2010 की टिप्पणी के लिए आपराधिक मुकदमा चला बना रही निशाना

भारत की नरेंद्र मोदी नीत, धुर दक्षिणपंथी सरकार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जानी मानी लेखिका अरुंधति रॉय और कश्मीर सेंट्रल यूनिवर्सिटी के पूर्व इंटरनेशनल लॉ प्रोफ़ेसर शेख़ शौकत हुसैन पर 13 साल पहले एक कांफ़्रेंस में की गई उनकी टिप्पणी के लिए निशाना बनाने के लिए आपराधिक मुकदमा चला रही है. अभिव्यक्ति की आज़ादी पर यह शर्मनाक हमला, बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकारों पर मोदी सरकार के लगातार बढ़ते हमले और नॉन-स्टाप हिंदू साम्प्रदायिक उकसावेबाज़ी अभियान का हिस्सा है.

अरुंधति रॉय को उनके उपन्यास द गॉड ऑफ़ स्माल थिंग के लिए 1997 में बुकर पुरस्कार से नवाज़ा गया था. उपन्यास के कामों के अलावा उन्होंने पिछली एक चौथाई शताब्दी में ऐसे ढेरों लेख लिखे जिनमें पूर्व की कांग्रेस पार्टी नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार और मोदी की हिंदू श्रेष्ठतावादी बीजेपी के तहत भारतीय पूंजीवाद के उभार की अत्यंत कटु आलोचना की गई थी. हुसैन भारत प्रशासित कश्मीर में जाने माने मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं.

2010 में की गई टिप्पणी के लिए रॉय और हुसैन को जेल भेजने की कोशिश बताती है कि मोदी सरकार लोकतंत्र विरोधी उपद्रव पर उतारू है. यह सभी विरोधियों को चुप कराने और व्यवस्थित तरीके से उन्हें निशाना बनाने के लिए पुलिस और कोर्ट का इस्तेमाल कर रही है, ख़ासकर वाम पक्ष के लोगों को. जबकि दूसरी तरफ़ डराने धमकाने के लिए वे बीजेपी के कट्टर दक्षिणपंथी काडरों को एकजुट कर रहे हैं और हिंदू श्रेष्ठतावाद के प्रचार के मार्फत मज़दूर वर्ग में दरार डाल रहे हैं. और यह इस साल के अंत तक होने वाले पांच विधानसभा चुनावों और 2024 के बसंत तक होने वाले आम चुनावों से पहले हो रहा है.

भारत के बड़े उद्योग घरानों और अमेरिका और अन्य पश्चिमी साम्राज्यवादी ताक़तों, जोकि भारत को चीन के बरक्श एक लोकतांत्रिक देश के रूप में सनकपन की हद तक प्रचारित करने पर तुले हुए हैं, का बीजेपी को मजबूत समर्थन मिला हुआ है, जो मोदी में यह भाव भर रहा है कि उनका कोई कुछ नहीं बिगड़ सकता. लेकिन इन सबसे ऊपर, उनकी सरकार के सारे कारनामे इस समझादारी में निहित हैं कि देश में सबसे अधिक सामाजिक गैर बराबरी से पैदा हुआ सामाजिक असंतोष, (जो भले ही अभी आधा अधूरा है) बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी और भुखमरी का आलम है. यूनेस्को और विश्व स्वास्थ्य संगठन समेत संयुक्त राष्ट्र की कई एजेंसियों की हालिया रिपोर्टों का मानना है कि आश्यचर्यजनक रूप से भारत की 75% आबादी ढंग से भोजन का इंतज़ाम करने में भी असमर्थ है.

10 अक्टूबर को दिल्ली के उप राज्यपाल वीके सक्सेना- जिन्हें मोदी सरकार ने नियुक्त किया है और वो उसी के इशारे पर काम करते हैं- उन्होंने रॉय और हुसैन पर आपराधिक मुकदमा चलाने के लिए पुलिस को मंज़ूरी दे दी. वाम रुझान वाली वेबसाइट न्यूज़क्लिक पर छापे के एक सप्ताह बाद ही ये मंज़ूरी दी गई. न्यूज़क्लिक और इससे जुड़े लोगों पर विदेशी फ़ंड के मनगढंत आरोपों के आधार पर छापे मारे गए और फिर न्यूज़क्लिक के संपादक और एचआर मैनेजर को कठोर 'आतंकवाद विरोधी क़ानून' के तहत गिरफ़्तार कर लिया गया था.

21 अक्टूबर 2010 को कश्मीरी अलगाववादी ग्रुपों द्वारा 'आज़ादी- एक मात्र रास्ता' नामक एक कांफ़्रेंस में दिए गए उनके भाषणों के लिए रॉय और हुसैन पर कई 'अपराधों' का आरोप लगाया गया है. आज़ादी, जिसका कई भारतीय भाषाओं में मतलब है 'मुक्ति', इसे कश्मीरी अलगाववादी ग्रुपों ने एक नारा बना दिया है जिसका आशय है- भारतीय शासन से इस इलाके की स्वतंत्रता का आह्वान. इस कांफ़्रेंस में भारतीय संघ से अलग होने की वकालत करने वाले पूर्वोत्तर भारत के कई जानजातीय राष्ट्रवादी ग्रुपों के प्रतिनिधि भी शामिल हुए थे.

अपने भाषण में रॉय ने कश्मीर के लिए 'आत्म-निर्णय' के अधिकार का आह्वान किया. 1947-48 में इस उपमहाद्वीप के सबसे खून खराबे वाले बंटवारे के बाद यह इलाक़ा दो फाड़ हो गया था- एक पाकिस्तान के और दूसरा भारत के 'कश्मीरियों' में. अपनी बात के पक्ष में रॉय ने कहा कि भारत ने संयुक्त राष्ट्र के सामने ये स्वीकार किया था कि कश्मीर एक विवादित क्षेत्र है और भारतीय संघ का 'अभिन्न हिस्सा' नहीं है. 

पिछली तीन चौथाई शताब्दी के दौरान नई दिल्ली और इस्लामाबाद दोनों ने ही अपनी प्रतिगामी सामरिक प्रतिद्वंद्विता के केंद्र में कश्मीरी विवाद को लाकर, कश्मीर लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों को रौंदने का काम किया है, जिसकी वजह से तीन युद्ध और अनगिनत झड़पें हो चुकी हैं और अब परमाणु युद्ध का ख़तरा मंडराने लगा है.

एक सप्ताह पहले एक पत्रकार की मांग का ज़िक्र करते हुए अरुंधति रॉय ने कश्मीर पर अपने स्टैंड को स्पष्ट करते हुए 2010 की कांफ़्रेंस में कहा था, 'कश्मीर कभी भी भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं रहा है. यहां तक कि भारत सरकार संयुक्त राष्ट्र में स्वीकार कर चुकी है कि यह भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं है. तो हम इस इतिहास को क्यों बदलने की कोशिश कर रहे हैं?'

अपने भाषण में रॉय ने कश्मीरी जनता पर क्रूर दमन की निंदा की. जबसे 1989 में दिखावटी चुनाव के ख़िलाफ़ सबसे बड़ा विरोध प्रदर्शन फूट पड़ा, तबसे ही 5 लाख भारतीय सैनिकों और अर्द्धसैनिक बलों की तैनाती करके उनपर पहरा बैठा दिया गया और उनका दमन किया गया. इन सशस्त्र बलों ने उसी तरह के जुल्म ढाहे जैसे इसराइली सेना ने कब्ज़े वाले इलाक़ों में फ़लस्तीनियों के खिलाफ़ ढाहे हैं. 

रॉय और हुसैन पर भारतीय दंड संहिता की तीन धाराओं 153ए, 153बी और 505 के तहत आरोप लगाए गए हैं और इन मामलों में उन्हें कई त्रिवर्षीय कैद की सज़ा हो सकती है. पहला आरोप कथित रूप से 'धर्म, जाति, जन्म स्थान आदि के आधार पर विभिन्न समूहों में असंतोष भड़काने' के लिए है, दूसरा आरोप 'राष्ट्रीय एकता के ख़िलाफ़ किए गए दावों और आरोपों' के लिए है, और तीसरा आरोप 'सार्वजनिक रूप से अशांति को बढ़ावा देने' के लिए लगाए गए हैं.

ये आरोप 2010 में एक बीजेपी के 'चुनावी प्रचार रणनीतिकार' सुशील पंडित की पुलिस में दी गई शिकायत पर आधारित हैं, जो इस कांफ़्रेंस में शामिल हुए चार प्रमुख लोगों जिनमें रॉय और हुसैन भी शामिल थे, पर लगाए गए थे. जिन दो अन्य लोगों पर शिकायत की गई उनकी मृत्यु हो चुकी है. 

इसके अतिरिक्त पुलिस ने रॉय और हुसैन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाए जाने का भी सुझाव दिया है. हालांकि दिल्ली के उप राज्यपाल ने इस विस्फोटक कदम की मंज़ूरी नहीं दी क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि यह क़ानून बहुत व्यापक है और इसका अंधाधुंध इस्तेमाल किया जा रहा है इसलिए में संशोधन की ज़रूरत है, इसके बाद बीजेपी सरकार ने भारत के मौजूदा औपनिवेशिक ज़माने के देशद्रोह क़ानून को ख़त्म करने का वादा किया था.

मोदी सरकार इस 13 साल पुराने मामले को खोदकर इसलिए निकाल रही है क्योंकि रॉय लंबे समय से उसके बड़े उद्योगपति समर्थक और साम्प्रदायिक एजेंडे की घोर आलोचक हैं. 

वो अच्छी तरह जानती हैं कि वो सरकार के निशाने पर हैं, बीजेपी प्रवक्ताओं और कार्पोरेट मीडिया और विपक्ष के एक धड़े द्वारा उन्हें बार बार बदनाम करने और विलेन बनाने की कोशिशें हुईं.

जून 2022 में सीएनएन वेबसाइट में संपदाकीय पृष्ठ पर रॉय ने एक लेख में लिखा कि 'मैं जो कुछ लिखती और बोलती हूं, ख़ासकर कश्मीर के बारे में, उसके लिए मेरे जैसे लोग एंटी नेशनल्स की ए-लिस्ट में हैं.' मोदी, गृह मंत्री शाह और बीजेपी के अन्य नेता नियमित रूप से अपने आलोचकों की एंटी नेशनल कहकर निंदा करते हैं, यहां तक कि संसदीय विपक्षी खेमे को भी. एंटी नेशनल से उनका आशय होता है भारत के दुश्मनों- पाकिस्तान से लेकर चीन तक- को शह देने वाले.

सीएनएन के अपने लेख में उन्होंने बीजेपी के अंदर अपने ख़िलाफ़ ज़हरीला और हत्यारी भावनाओं को हवा दिए जाने की तरफ़ इशारा किया. 'एक बॉलीवुड एक्टर और बीजेपी सांसद ने सुझाव दिया था कि कश्मीर में मुझे सेना की एक जीप पर बांध देना चाहिए और भारतीय सेना द्वारा मानव ढाल के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए.'

2010 के कांफ़्रेंस के बाद, भारत की तत्कालीन कांग्रेस पार्टी नीत यूपीए सरकार ने रॉय और इसमें शामिल होने वाले अन्य लोगों को गिरफ़्तार करने और उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाने पर गंभीरता से विचार किया था.

लेकिन जब वो पीछे हट गई तो बीजेपी को ये बहुत नागवार गुजरा. बीजेपी के महासचिव अनंत कुमार ने हत्या की धमकी भरा बयान दिया और रॉय और अब नहीं रहे कश्मीर अलगाववादी नेता सैदय अली शाह गिलानी को 'तत्काल गिरफ़्तार' करने की मांग की थी. उन्होंने ऐलान किया, 'भारत के ख़िलाफ़ बोलने वालों को फांसी पर लटका देना चाहिए.' ये वही पृष्ठभूमि है जब बीजेपी के 'प्रचार रणनीतिकार' सुशील पंडित ने 2010 में दिल्ली के मजिस्ट्रेट के सामने शिकायत दर्ज कराई.

रॉय के ख़िलाफ़ गंभीर आरोपों और लोकतांत्रिक अधिकारों और अभिव्यक्ति आज़ादी के प्रति इसके होने वाले प्रभावों के वावजूद कार्पोरेट मीडिया चुप ही रहा, जैसा न्यूज़क्लिक के मामले में हुआ. अगस्त 2019 में मोदी और बीजेपी ने भारत के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू एवं कश्मीर के अर्द्ध स्वायत्त संवैधानिक दर्जे को हटाकर एक संवैधानिक तख़्तापलट को अंजाम दिया. उसने इसके राज्य के दर्जे को भी छीनकर केंद्रीय सरकार के नीचे काम करने वाला एक केंद्र प्रशासित क्षेत्र बना दिया. शासक वर्ग और इसके गोदी मीडिया द्वारा इस कार्यवाही को एक 'मास्टरस्ट्रोक' के रूप में प्रचारित किया गया.  

अरुंधति रॉय को निशाना बनाए जाने के ख़िलाफ़ जिन कुछ लोगों ने आवाज़ उठाई उनमें कांग्रेस पार्टी के नेता पी चिदम्बरम हैं, जो 2010 में यूपीए सरकार में गृह मंत्री थे. यह चिदम्बर की अपनी ही करतूत पर पर्दा डालने का मामला था. टाइम्स ऑफ़ इंडिया के मुताबिक, उनके गृह मंत्री रहने के दौरान ही मंत्रालय ने सबसे पहले रॉय और गिलानी पर देशद्रोह का मुकदमा चलाने की दिल्ली पुलिस को हरी झंडी दी थी. 

रॉय राजनीतिक रूप से उन विभिन्न मध्यवर्गीय ग्रुपों और स्टालिनवादियों और माओवादियों के साथ हैं जो आने वाले आम चुनावों में 'फासीवादी' बीजेपी को हराने के लिए 'केंद्र' के साथ एक व्यापक गठबंधन की वकालत करते हैं, जोकि एक दक्षिण पंथी पूंजीवादी पार्टियों की अगुवाई वाला गठबंधन है. 

फिर भी उन्होंने शासक वर्ग के अपराधों की अक्सर कटु आलोचना कर, भारत के राजनीतिक सत्ता तंत्र और कार्पोरेट गलियारे में काफ़ी बेचैनी पैदा कर दी है. 2010 के भाषण में, जिसके लिए उन्हें अब निशाना बनाया जा रहा है, उन्होंने कहा था कि 'जब सोवियत यूनियन के पतन के बाद भारत ने अपने पक्ष में बदलाव किया तो इसने दो चीजें कीं, दो ताले खोले. एक ताला था बाबरी मस्जिद का (जिसे बीजेपी नीत हिंदू सांप्रदायिक कट्टरपंथियों ने दिसम्बर 1992 में ढहा दिया, जिसके बाद भयंकर सांप्रदायिक दंगे हुए) और दूसरा भारतीय बाज़ार का ताला. और इसने एकाधिकार के दो जिन्नों को खोल दिया- हिंदू फासीवाद या हिंदुत्व फासीवाद और आर्थिक एकाधिकार और इन दोनों ने अपने किस्म के आतंकवाद को पैदा किया.'

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