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ग़ज़ा युद्ध पर मोदी और 'चोरों के गिरोह' संयुक्त राष्ट्र से अपील के साथ भारतीय स्टालिनवादी नकली साम्राज्यवाद विरोधी ज़ुमलेबाज़ी कर रहे हैं

यह लेख 22 जून 2023 को मूल रूप से अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ था. उसका ये हिंदी अनुवाद है.

ग़ज़ा में फ़लस्तीनी जनता के ख़िलाफ़ इसराइली सरकार के जनसंहार ने 20,000 से अधिक लोगों को जान ली है और ग़ज़ा पट्टी की 85% आबादी को अपने घरों से विस्थापित कर दिया है. दो महीने से भी ज़्यादा समय से चल रहे इस कत्लेलाम के दौरान अमेरिकी साम्राज्यवाद ने धुर दक्षिणपंथी नेतन्याहू सरकार को न केवल समर्थन दिया है बल्कि इन सबसे ऊपर उसने हथियारों की निर्बाध आपूर्ति की है जिनका इस्तेमाल इसराइल ने फ़लस्तीनी पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की अंधाधुंध हत्या करने के लिए किया है.

जिस तरह यहूदी राज्य रोज़ाना भयंकर युद्ध अपराध को अंजाम दे रहा है और उसके साम्राज्यवादी आका पूरे ज़ोर से उसका समर्थन कर रहे हैं, उसने पूरी दुनिया में आक्रोश को पैदा किया है. हर महाद्वीप में दसियों लाख लोगों ने ग़ज़ा में जनसंहार की निंदा करते हुए प्रोटेस्ट मार्च में शिरकत की. ये प्रदर्शन भारत में भी हुए हैं, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी हिंदू श्रेष्ठतावादी बीजेपी सरकार ने इसराइल को अपना पूरा समर्थन दे रखा है.

भारत की मुख्य स्टालिनवादी संसदीय पार्टी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी माकपा और इसका वाम मोर्चा, ग़ज़ा युद्ध के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन का आह्वान करने पर मज़बूर हुए हैं. नवंबर के पहले सप्ताह से ही, स्टालिनवादी अगुवाई वाले वाम मोर्चे ने, दक्षिण में केरल के कोझिकोड़ में और पूरब में पश्चिम बंगाल के कोलकाता समेत कई शहरों में विरोध प्रदर्शनों को आयोजित किया.

भारतीय सत्ता तंत्र में दशकों तक अपनी 'वामपंथी' पक्ष की भूमिका के चलते भारतीय स्टालिनवादी, पूंजीवादी राजनीति और महाशक्तियों के कूटनीतिक प्रतिक्रियावादी खांचे के अंदर ग़ज़ा में ग़रीब और बेघर फ़लस्तीनियों के जनसंहार के ख़िलाफ़ मज़दूरों और नौजवानों के विरोध को बांध रहे हैं. एक तरफ़ वे अमेरिकी साम्राज्यवादी के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी कर रहे हैं जबकि दूसरी तरफ़ साम्राज्यवादी दबदबे वाली दुनिया के ख़िलाफ़ युद्ध विरोधी आंदोलन की अगुवाई करने से अंतरराष्ट्रीय मज़दूर वर्ग की गोलबंदी का सतत विरोध कर रहे हैं.

वे भारत सरकार पर इसराइल का समर्थन वापस लेने का दबाव बना रहे हैं और संयुक्त राष्ट्र से पश्चिम एशिया में शांति स्थापित करने के लिए 'द्वि-राज्य समाधान' लागू किए जाने की मांग कर रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र में उन्हीं साम्राज्यवादी शक्तियों का दबदबा है, जो ग़ज़ा में जनसंहार का पूरा समर्थन करती हैं और जिसके पिछले संगठन लीग ऑफ़ नेशंस को लेनिन ने 'चोरों का गिरोह' कहा था.

भारत-अमेरिका गठजोड़ और एक 'स्वतंत्र विदेश नीति' और एक 'बहुध्रुवीय दुनिया' के लिए माकपा का आह्वान

आठ नवंबर को कोलकाता में वाम मोर्चे ने एक प्रदर्शन रैली आयोजित की थी. इसमें स्टालिनवादियों ने मांग की कि 'मोदी सरकार साम्राज्यवाद का सहयोगी बनना बंद करे और पहले की तरह स्वतंत्र विदेश नीति अपनाए.' असल में यह संदर्भ शीत युद्ध के दौरान भारत की 'गुटनिरपेक्ष' नीति का है जिसमें नई दिल्ली ने सोवियत रूस और अमेरिका और अन्य साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच संबंधों का संतुलन क़ायम किए रखा था. इस नीति को भारतीय बुर्जुआ वर्ग ने 1991 में त्याग दिया और साथ ही राज्य नियोजित पूंजीवादी विकास मॉडल को भी, क्योंकि सोवियत स्टालिनवादी नौकरशाही, पूंजीवाद को पुनर्स्थापित कर रही थी और यूएसएसआर को ख़त्म कर रही थी.

ग़ज़ा में इसराइली जनसंहार के ख़िलाफ़ 8 नवंबर को कोलकाता में माकपा और वाम मोर्चा ने प्रदर्शन आयोजित किया. (फ़ोटोः न्यूज़क्लिक) [Photo: Newsclick]

बीते तीन दशकों में भारतीय बुर्जुआज़ी ने भारत को अमेरिकी साम्राज्यवाद का क़रीबी सैन्य-रणनीतिक सहयोगी में बदल डाला है और साम्राज्यवादी दबदबे वाली विश्व अर्थव्यवस्था के साथ भारत को नत्थी कर और भारतीय मज़दूरों, ग्रामीण मेहनतकशों और प्राकृतिक संसाधनों को वैश्विक पूंजी के हवाले करके लाभ कमाने की नीति अपनाई है.

ग़ज़ा जनसंहार के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन बुलाने के लिए वाम मोर्चे द्वारा जारी बयान में आह्वान किया गया है कि 'फ़लस्तीनी जनता पर अमेरिकी-इसराइली जनसंहार का समर्थन करना भारत सरकार बंद करे और तत्काल संघर्ष विराम के लिए वैश्विक आह्वान में शामिल हो.'

ये अपील तब की गई है कि जब मोदी दुनिया के पहले नेताओं में से एक थे, जिन्होंने फ़लस्तीनियों पर इसराइली युद्ध के लिए अपना पूरा समर्थन जारी किया. जैसा कि वर्ल्ड सोशलिस्ट वेब साइट ने पहले विस्तार से बताया है, इसराइल के प्रति मोदी सरकार का पक्का समर्थन, अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ भारतीय बुर्जुआज़ी के गठजोड़ से पैदा होता है, जोकि वॉशिंगटन के साथ नई दिल्ली की वैश्विक रणनीतिक साझेदारी में सूत्रबद्ध किया जा चुका है. यह रिश्ता कांग्रेस पार्टी नीत यूपीए सरकार और जॉर्ज डब्ल्यू बुश प्रशासन के समय शुरू हुआ जब अमेरिका इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़े हुए था, लेकिन मोदी सरकार के एक दशक के शासनकाल में भारत-अमेरिका गठबंधन और मज़बूत और विस्तारित हुआ है. परिणास्वरूप, बीजिंग के ख़िलाफ़ चौतरफ़ा रणनीतिक घेराबंदी और चीन के साथ युद्ध की तैयारियों की वॉशिंगटन की योजनाओं में भारत उसकी अग्रिम चौकी बनता जा रहा है.

वॉशिंगटन भारत के साथ अपने गठबंधन को, पूर्वी यूरोप में रूस, पश्चिम एशिया में ईरान और एशिया प्रशांत में चीन के ख़िलाफ़ अमेरिकी साम्राज्यवादी युद्ध, जोकि लगातार तीसरे विश्व युद्ध की ओर बढ़ रहा है, के लिए बहुत अहम मानता है.

इसराइली जनसंहार के लिए भारतीय सत्ताधारी उच्च वर्ग के समर्थन को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए. वह मानता है कि अपनी खुद की परभक्षी महाशक्ति बनने की महात्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए और भारत को चीन की जगह सस्ते मज़दूरों वाले उत्पादन केंद्र का विकल्प बनाने के लिए, अमेरिकी साम्राज्यवाद का समर्थन बहुत ज़रूरी है.

भारतीय बुर्जुआज़ी को 'स्वतंत्र' विदेश नीति अपनाने का आह्नवान करके स्टालिनवादी एक ऐसा भ्रम फैला रहे हैं कि 'बहु ध्रुवीय' दुनिया, अमेरिकी दबदबे वाली 'एकध्रुवीय' दुनिया का प्रगतिशील विकल्प बनेगी और भारतीय पूंजीवादी सरकार को अंतरराष्ट्रीय मसलों में अधिक प्रभावकारी स्थिति प्रदान करेगी. यहां तक कि स्टालिनवादी, भारतीय बुर्जुआज़ी से आग्रह कर रहे हैं कि वो यूरोपीय साम्राज्यवादियों, पूंजीवादी पुनरस्थापना वाली रूस और चीन की सरकारों और अन्य ब्रिक्स देशों के साथ संबंध मज़बूत बनाए.

एक तरफ़ वे मार्क्सवादी शब्दजाल का इस्तेमाल करते हैं तो दूसरी तरफ़ माकपा नेता सामाजिक क्रांति के प्रति दुश्मनाना रुख़ बनाए हुए हैं और मज़दूर वर्ग को पूंजीवाद का ग़ुलाम बनाने पर तुले हुए हैं. उनका दावा है कि अगर 'अंतरराष्ट्रीय संबंधों' में अथिक संतुलन हो तो यह आगे सामाजिक प्रगति का द्वारा खोलेगा.

स्टालिनवादियों के लिए, ग़ज़ा पर इसराइली जनसंहार और रूस पर अमेरिका-नैटो के भड़काऊ युद्ध का, बीती सदी में हुए दो विश्व युद्धों की तरह एक नए विश्व युद्ध की ओर जाते हालात से कोई लेना देना नहीं है और इसका मूल कारण पूंजीवाद के बुनियादी अंतरविरोध यानी व्यवस्थित संकट में है, और इसका केवल प्रगतिशील समाधान, इस मुनाफ़े वाले सिस्टम और पूंजीवादी राष्ट्र राज्य के प्रतिद्ंवद्वी सिस्टम, जिसमें इसकी जड़ें ऐतिहासिक रूस से मौजूद हैं, को ख़त्म करने के लिए मज़दूर वर्ग की अंतरराष्ट्रीय लामबंदी से ही हो सकता है.

इसकी बजाय, पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी और पूर्व महासचिव प्रकाश करात के अनुसार, यह युद्ध बहुत अधिक लालची अमेरिकी साम्राज्यवाद का परिणाम है, जिसे पुनर्गठित वैश्विक पूंजीवादी अंतर देशीय सिस्टम के अंदर बेहतर तरीके से नियंत्रित किए जाने की ज़रूरत है.

भारतीय स्टालिनवादियों का यह नज़रिया कि नई दिल्ली को 'स्वतंत्र विदेश नीति' अपनानी चाहिए ताकि वे अंतरराष्ट्रीय मसलों में 'प्रगतिशील' भूमिका निभा सकें, यह उनके उस फ़र्ज़ी दावे से निकलता है कि भारतीय राज्य, बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में दक्षिण एशिया में झकझोर देने वाले साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षों की कोख से पैदा हुआ है. जबकि वास्तविकता यह है कि 'आज़ाद भारत', मज़दूर वर्ग और ग्रामीण आबादी के लोकतांत्रिक और सामाजिक आंदोलनों के दमन का नतीजा था. उठती क्रांतिकारी आंधी के डर से गांधी-नेहरू नीत भारतीय कांग्रेस ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद से एक समझौता किया और उसी के तहत दक्षिण एशिया का साम्प्रदायिक आधार पर विभाजन किया गया, जिसके तहत एक हिंदू बहुल भारत और मुस्लिम बहुल पाकिस्तान बना. और भारतीय बुर्जुआज़ी ने औपनिवेशिक सत्ता तंत्र को अपने हाथ में ले लिया और विदेशी और देशी पूंजी की रक्षा की सीधी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली.

भारतीय स्टालिनवादियों का प्रतिक्रियावादी, साम्राज्यवाद प्रायोजित 'द्वि राष्ट्र समाधान' का समर्थन करना

फ़लस्तीनी जनता को उनके घर से उजाड़ने और उनपर साम्राज्यवाद समर्थित जनसंहार के ख़िलाफ़ वैश्विक आंदोलन को, संयुक्त राष्ट्र, मोदी सरकार और पश्चिमी शक्तियों पर दबाव डालने की माकपा की बेकार और प्रतिक्रियावादी कोशिशें भारतीय मज़दूर वर्ग को भारतीय बुर्जुआज़ी के मातहत लाने की उसकी कोशिशों का ही हिस्सा है. दशकों से माकपा ने मज़दूर वर्ग को कांग्रेस पार्टी और उसकी अगुवाई वाली सरकारों के समर्थन में लगा रखा है और एक दशक पहले तक उसने धुर दक्षिणपंथी हिंदू श्रेष्ठतावादी बीजेपी के विकल्प के तौर पर पूंजीपति वर्ग की पसंद वाली राष्ट्रीय सरकार और 'सेक्युलर' मानी जाने वाली बुर्जुआ पार्टियों को समर्थन दिया. वास्तविकता में इन पार्टियों ने सत्ता में रहते हुए दक्षिणपंथी नीतियों को लागू किया और स्टालिनवादियों और स्टालिनवादी नियंत्रित यूनियनों के साथ मिलिभगत कर वर्ग संघर्ष का दमन किया और कांग्रेस और इसके क्षेत्रीय सहयोगियों ने भारतीय बुर्जुआ राजनीति में बीजेपी की ताक़तवर शक्ति के रूप में उभार का रास्ता साफ़ किया.

चुनावी 'इंडिया' गठबंधन का समर्थन करके स्टालिनवादी, 2024 के वसंत में होने वाले आम चुनावों में एक वैकल्पिक कांग्रेस नीत बुर्जुआ सरकार को सत्ता में लाना चाहते हैं. कांग्रेस और इसके सहयोगी क्षेत्रीय दलों का राजनीतिक रिकॉर्ड, मोदी सरकार की तुलना में बुनियादी रूप से बिल्कुल भी अलग नहीं है. यह निवेश समर्थक आर्थिक नीतियों को लागू करना जारी रखेंगे, चीन के साथ युद्ध की तैयारी में अमेरिकी साम्राज्यवादी की मदद करेंगे और लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला बोलेंगे.

माकपा की प्रतिक्रियावादी नीतियां स्टालिनवाद का परिणाम है, यानी, अधिकार संपन्न नौकरशाही की राष्ट्रवादी राजनीति और विचारधारा, जिसने सोवियत मज़दूर वर्ग से सत्ता छीन ली और विश्व समाजवादी क्रांति के उस कार्यक्रम को अस्वीकार कर दिया, जिसे लेनिन और ट्राटस्की के नेतृत्व में रूसी क्रांति के तहत आगे बढ़ाया जा रहा था. 'एक देश में समाजवाद' के नाम पर स्टालिनवादी नौकरशाही ने साम्राज्यवादी शक्तियों और ऐतिहासिक रूप से साम्राज्यवादी प्रभुत्व वाले देशों की राष्ट्रीय बुर्जुआज़ी के साथ गठजोड़ करने के लिए अंतरराष्ट्रीय मज़दूर वर्ग के संघर्षों में तोड़फोड़ करके, ग़लत तरीके से हासिल अपने विशेषाधिकारों को बनाए रखा.

दक्षिण एशिया का साम्प्रदायिक आधार पर विभाजन के फलस्वरूप भारत और पाकिस्तान के स्वतंत्र पूंजीवादी देश बने, इसके महज एक साल बाद ही, 1948 में फ़लस्तीन का सम्राज्यवाद समर्थित विभाजन और इसराइली यहूदी राज्य का गठन हुआ.

फ़लस्तीन के मामले में मॉस्को में क्रेमलिन की नौकरशाही ने इसराइल के गठन का समर्थन किया. इस नौकरशाही को विभिन्न कम्युनिस्ट पार्टियों का समर्थन प्राप्त था जिसमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी- सीपीआई भी शामिल थी, जिससे बाद में 1964 में अलग होकर माकपा बनी थी. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मज़दूर वर्ग के वैश्विक क्रांतिकारी उभार के दमन के मार्फत साम्राज्यवादियों के साथ गठजोड़ करने के अपने व्यापक प्रयास के तहत क्रेमलिन की नौकरशाही ने ऐसा किया.

भारत में स्टालिनवादी सीपीआई, जिसने युद्ध के दौरान 'भारत छोड़ो' आंदोलन को विफल करने में मदद की थी, उसने व्यवस्थित तरीके से मज़दूर वर्ग को इस आधार पर कांग्रेस पार्टी और मुस्लिम लीग के अधीन कर दिया कि राष्ट्रीय बुर्जुआज़ी के राजनीतिक प्रतिनिधि के रूप में वे साम्राज्यवाद विरोधी जनवादी क्रांति के सही नेता थे. ब्रिटेन, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच हुए 'सत्ता हस्तानांतरण समझौते' और उप महाद्वीप के साम्प्रदायिक विभाजन का सीपीआई ने समर्थन किया और भारतीय विधायिका में मौजूद उनके प्रतिनिधियों ने इसके पक्ष में वोट किया, जिसके परिणामस्वरूप मुस्लिम पाकिस्तान और हिंदू बहुल भारत का गठन हुआ. इसके पीछे सीपीआई का तर्क था कि उन्होंने 'आत्म निर्णय' के अधिकार को मानते हुए ऐसा किया.

ग़ज़ा में जनसंहार को रोकने के लिए उन्हीं साम्राज्यवादियों और भारतीय पूंजीपति वर्ग से भारतीय स्टालिनवादियों की दयनीय और प्रतिक्रियावादी अपील के विरोध में, जो खुद उस जनसंहार में शामिल हैं, वर्ल्ड सोशलिस्ट वेब साइट इस बात पर ज़ोर देती है कि यह लक्ष्य केवल मज़दूर वर्ग की अंतर्राष्ट्रीय लामबंदी के माध्यम से ही हासिल हो सकता है.

दुनिया भर में विरोध प्रदर्शनों में शामिल हुए मज़दूरों और नौजवानों का हम आह्वान करते हैं कि वे समर्थन के लिए मज़दूर वर्ग की मदद लें. मज़दूरों को इसराइल को भेजे जाने वाले सभी संभावित हथियारों की आपूर्ति और उत्पादन को ठप करने के लिए हड़ताल और अन्य कार्रवाइयां आयोजित करनी चाहिए. इसे एक अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक आम हड़ताल के संघर्ष से जोड़ना होगा और साम्राज्यवादी युद्ध के ख़िलाफ़ लड़ाई को पूंजीवादी 'खर्च कटौती' और मज़दूर वर्ग की सुविधाओं और लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमले के ख़िलाफ़ दुनिया भर में मेहनतकश लोगों के बढ़ते जन उभार के साथ जोड़ना होगा.

साम्राज्यवाद की बर्बरता और विश्व में बढ़ते युद्ध के ख़तरे में, संकटग्रस्त पूंजीवाद पूरी मानवता को झोंकना चाहता है. इसका एकमात्र प्रगतिशील जवाब है अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ग़ज़ा युद्ध विरोधी प्रदर्शन और समाजवादी नज़रिए के साथ मज़दूर वर्ग का उभार.

प्रतिक्रियावादी 'द्वि राष्ट्र समाधान' के विरोध में पूरे पश्चिम एशिया में अरब और यहूदी वर्करों की एकता को, साम्राज्यवाद और सभी प्रकार के राष्ट्रवाद, यहूदी और अरब दोनों प्रकार के, और मज़दूरों की सत्ता और पश्चिम एशिया में संयुक्त समाजवादी राज्यों की स्थापना के लिए, साकार रूप देना होगा.

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