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पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में गैर न्यायिक हत्याओं और सरकारी दमन के ख़िलाफ़ जनता सड़कों पर

11 दिसम्बर 2023 को मूल रूप से अंग्रेज़ी में छपे “Mass protests continue in Pakistan’s Balochistan province over extra-judicial killings and other state crimes” का यह हिंदी अनुवाद है.

पाकिस्तान के सबसे ग़रीब प्रांत बलोचिस्तान में लगभग तीन हफ़्ते से जनता सड़कों पर है. ये प्रदर्शन, पाकिस्तानी सरकार द्वारा ज़बरिया लोगों को ग़ायब करने, ग़ैर न्यायिक हत्याएं और जातीय-राष्ट्रवादी अलगाववादी विद्रोह समेत सभी व्यापक विरोधों को दबाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले ग़ैरक़ानूनी हथकंडों के ख़िलाफ़ हो रहे हैं.

ताज़ा फूट पड़े प्रदर्शनों का कारण था, पिछले महीने सरकारी सशस्त्र बलों द्वारा 24 साल के बालाच मोला बख़्श की ग़ैर न्यायिक हत्या किया जाना.

24 साल के बलाच मोला बख़्श की ग़ैर न्यायिक हत्या के ख़िलाफ़ तुर्बत में धरना. (फ़ोटोः असद बलोच/फ़ेसबुक) [Photo: Assad Baloch/Facebook]

12 दिनों से दक्षिण-पश्चिमी बलोचिस्तान के दूसरे सबसे बड़़े तुर्बत शहर में हज़ारों लोग सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं. ये लोग मोला बख़्श के रिश्तेदारों के समर्थन में सड़क पर हैं और सरकार से उनकी मौत का स्पष्ट कारण बताने और ज़िम्मेदार लोगों को सज़ा देने की मांग कर रहे हैं. पिछले हफ़्ते के अंत में यह धरना प्रदर्शन तुर्बत से 800 किलोमीटर दूर प्रांत की राजधानी क्वेटा तक एक लॉंग मार्च में बदल गया. असल में यह मार्च एक प्रदर्शन रैली का ही हिस्सा है, जिसमें वाहनों पर सवार लोग रास्ते में पड़ने वाले शहरों और कस्बों में रैली करते हैं और समर्थन का दायरा बढ़ाने की कोशिश करते हैं. प्रशासन के स्वाभाविक दुश्मनाना रवैये के बावजूद स्थानीय लोगों की ओर से प्रदर्शनकारियों का भरपूर स्वागत हो रहा है और उनके ठहरने के इंतज़ाम में वे मदद कर रहे हैं.

काउंटर टेररिज़्म डिपार्टमेंट (सीटीडी) ने मोला बख़्श की मौत के बारे में पूरी तरह अविश्वसनीय और अंतरविरोधी कहानी बयां की हैं. उसका दावा है कि बख़्श की मौत गोलीबारी के दौरान हुई, जबकि 21 नवंबर को मौत से 24 घंटे पहले ही पीड़ित को एंटी टेररिज़्म कोर्ट के सामने पेश किया गया था.

सीटीडी के शुरुआती बयान के मुताबिक, 'हिरासत के दौरान मोला बख़्श ने आतंकवादी होने और कई हमलों को अंजाम देने की बात स्वीकार की थी. उन्हें 20 नवंबर को गिरफ़्तार किया गया था और उनके पास से पांच किलोग्राम विस्फ़ोटक सामग्री बरामद की गई थी.' बयान में ये नहीं बताया गया कि हिरासत से मोला बख़्श कथित रूप से भागने में कैसे क़ामयाब रहे और ये दावा किया गया है कि तुर्बत शहर में विद्रोहियों के ठिकाने पर सीटीडी के नेतृत्व में मारे गए छापे में तीन अन्य के साथ मोला बख़्श मारे गए.

लेकिन इसके तुरंत बाद सीटीडी ने अपनी कहानी बदल दी. अपने दूसरे बयान में उसने दावा किया कि मोला बख़्श खुद सशस्त्र बलों को उस ठिकाने तक ले गए और गोलीबारी के दौरान विद्रोहियों ने उन्हें मार डाला.

शुरू से ही बलाच मोला बख़्श के परिवार ने, साफ़ तौर पर सीटीडी के दावों को ख़ारिज कर दिया था. उनका सवाल है कि मोला बख़्श का शव 22 नवंबर की रात तुर्बत टीचिंग हॉस्पीटल में कैसे पहुंच गया. वे इस बात पर अड़े रहे कि बख़्श किसी भी ग़ैरक़ानूनी गतिविधि में शामिल नहीं थे और 29 अक्टूबर को सशस्त्र बलों द्वारा उन्हें 'ग़ायब' कर दिया गया और बाद में उन्हें पूरी तरह से एक 'फ़र्जी मुठभेड़' में मार डाला गया.

बलाच बख़्श की मौत के लिए ज़िम्मेदार लोगों को सामने लाने के लिए प्रशासन पर दबाव बनाने के लिए चलाए गए अपने अभियान के तहत उनके परिवार ने शव को दफ़नाने से इनकार कर दिया. पहले छह दिन तुर्बत के मुख्य चौराहे पर शव रख कर धरना प्रदर्शन किया गया, लेकिन शव में दुर्गंध फैलने की वजह से उसे हटा दिया गया.

25 नवंबर को एक निचली अदालत ने सीटीडी के रीजनल अफ़सर और दो अन्य अधिकारियों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करने का आदेश दिया, जोकि आपराधिक मामले में पहला कदम था. लेकिन प्रशासन ने एफ़आईआर दर्ज करने से इनकार कर दिया और प्रांतीय सरकार ने बलोचिस्तान हाईकोर्ट में इस आदेश को रद्द करने की मांग करते हुए याचिका दायर कर दी.

धरना प्रदर्शन के 17वें दिन, 9 दिसम्बर, शनिवार को आरोपियों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की गई. इसके अलगे सोमवार को बलोचिस्तान हाईकोर्ट ने सीटीडी के उन चार अधिकारियों को तत्काल प्रभाव से निलंबित किए जाने का आदेश दिया, जिनके ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की गई थी.

हालांकि प्रदर्शकारी संतुष्ट नहीं हैं और अन्य मागों के अलावा उनकी ये भी मांग है कि बलाच मोला बख़्श के ग़ायब होने और उनकी हत्या की एक पूर्ण न्यायिक जांच कराई जाए.

बलोचिस्तान प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर लेकिन ग़रीब इलाक़ा है और यहां बड़े पूंजीपतियों, ज़मींदारों और सरकारी कर्मचारियों के एक छोटे 'चोरतंत्र' का राजनीतिक दबदबा है; सेना का यहां प्रत्यक्ष कब्ज़ा है और बलोची राष्ट्रवादी विद्रोहियों और इस्लामी मिलिशिया के ख़िलाफ़ दसियों हज़ार सशस्त्र बल तैनात हैं.

मुल्क के वजूद के लगभग आधे समय तक खुली सैन्य तानाशाही के द्वारा देश पर शासन करने वाली पाकिस्तान की बिकाऊ बुर्जुआज़ी, जो कि इस समय अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) की 'खर्च कटौती' (ऑस्टेरिटी) के वहशी दौर को एक बार फिर लागू कर रही है, सामाजिक विरोध के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर हिंसा और अपराध इस्तेमाल करने के लिए कुख़्यात है. बलोचिस्तान में निश्चित रूप से यही हालात हैं.

साल 2006 में इसने वॉशिंगटन के नव औपनिवेशिक अफ़ग़ान युद्ध में अग्रणी भूमिका निभाई. अमेरिका समर्थित मुशर्रफ़ तानाशाही बलोचिस्तान में क्षेत्रीय और अलगाववादी भावना के उभार से डरी हुई थी और उसने नवाब अकबर ख़ान बुगती को उनके पहाड़ी किले में मार डालने के लिए सैन्य अभियान की शुरुआत की. बुगती कबीले के कबीलाई प्रमुख और पाकिस्तानी उच्च वर्ग की गलाकाटू राजनिति में लंबे समय से रसूख रखने वाले बुगती बलोचिस्तान के लिए और अधिक स्वायत्तता की मांग कर रहे थे.

जब उनकी हत्या का उल्टा असर हुआ, इसने बलोची राष्ट्रवादी भावना को और भड़काया और पांचवें बलोच राष्ट्रवादी विद्रोह का उभार हुआ, तो मुशर्रफ़ और उनके बाद की 'नागरिक' सरकारों ने सैन्यीकरण की नीति को लागू किया. इसके तहत बड़ी संख्या में सशस्त्र बलों को तैनात किया गया और ज़बरिया ग़ायब होने, ग़ैर न्यायिक हत्याएं, टॉर्चर और अन्य बड़े मानवाधिकार उल्लंघन के मामले बढ़ते गए.

जिस अवमानना के साथ इस्लामाबाद इस ग़रीब आबादी की जायज़ मांगों से निपटता है, उसने असंख्य बलोची आतंकी गुटों के पनपने में घी का काम किया. हालांकि इन गुटों के पास खुद का कोई प्रगतिशील कार्यक्रम नहीं है, बल्कि यह जातीय राष्ट्रवादी अलगाववाद और साम्प्रदायिकता और भारत एवं साम्राज्यवादी शक्तियों से समर्थन मांगने पर आधारित है.

बलोचिस्तान में, ख़ासकर पख़्तूनख्वा और अन्य जगहों पर, पाकिस्तानी सेना के खूनी दमन का शासन, व्यापक विरोध के निशाने पर आता जा रहा है. दुनिया के पांचवें सबसे बड़ी आबादी वाले इस मुल्क पर पूंजीवादी शासन के शीर्ष पर और पारम्परिक लेकिन बुरी तरह घिसे पिटे अमेरिकी-पाकिस्तान की सैन्य साझेदारी की धुरी में पाकिस्तानी सेना रही है.

लापता और क़त्ल किए गए लोगों के परिवारों की अगुवाई में धरने और प्रदर्शनों की संख्या बढ़ती जा रही है.

पाकिस्तान के मौजूदा अंतरिम प्रधानमंत्री अनवर-उल-हक़ काकड़ और उनके गृहमंत्री सरफ़राज़ अहमद बुगती, दोनों की ख्याति सेना के पक्के सहयोगी और चापलूस के रूप में है. दोनों ही, अपने गृह राज्य बलोचिस्तान में अलगाववादी विद्रोह के ख़िलाफ़ बर्बर दमन के कट्टर समर्थक रहे हैं.

हालांकि, ताज़ा ग़ैर न्यायिक हत्या से व्यापक गुस्सा फूट पड़ा है और पूरे दक्षिण पश्चिमी मरकान में, जिसका तुर्बत हिस्सा है, बड़े पैमाने पर नौजवान और महिलाएं सड़कों पर आ गए हैं. धरने और अन्य प्रदर्शनों के अलावा, 29 नवंबर को चक्का जाम के तहत मरकान क्षेत्र के तुर्बत और अन्य शहरों में व्यापार और दुकानें पूरी तरह बंद रहे. पाकिस्तान के औद्योगिक शहरों कराची और क्वेटा को जाने वाली चीन पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (सीपेक) के तहत बनी सड़कों को प्रदर्शनकारियों ने जाम कर दिया.

सरकारी हिंसा के ख़िलाफ़ उठता गुस्से का ज्वार, व्यापक ग़रीबी और सार्वजनिक सुविधाओं और पेय जल समेत बुनियादी ढांचों की कमी को लेकर सामूहिक असंतोष का नतीजा है.

हालांकि क़रीब एक करोड़ की आबादी वाला बलोचिस्तान, पाकिस्तान का सबसे कम घनी आबादी वाला और सबसे ग़रीब प्रांत है, लेकिन यह आर्थिक और भूराजनैतिक लिहाज से बहुत अहम है. यह प्राकृतिक स्रोतों का धनी है, जिसमें तांबा, सोना और प्राकृतिक गैस शामिल हैं और यह बीजिंग के लिए अरब सागर में नेवी बेस भी मुहैया करा सकता है और पश्चिम एशिया से चीन तक तेल और गैस भेजने के ज़मीनी रास्ते का प्रस्थान बिंदु भी बन सकता है. इस रास्ते से उसे अमेरिकी दबदबे वाले हिंद महासागर को बाइपास करने में आसानी होगी.

बलोची राष्ट्रीय-अलगाववादियों की अगुवाई बलोचिस्तान की क्षेत्रीय बुर्जुआज़ी करती है, जिसमें पारम्परिक कबीलाई सरदार और निम्न वर्ग शामिल हैं. और वे इलाके की प्राकृतिक संपदा और भूराजनैतिक स्थिति के दोहन पर, सेना के शीर्ष नेतृत्व और पाकिस्तानी पूंजीपतियों को हटाकर खुद कब्ज़ा करने और साम्राज्यवादियों के साथ सीधे सौदेबाज़ी करने की उम्मीद पाले हुए हैं.

बलोची जातीय-राष्ट्रवादी आंदोलन, भारतीय उपमहाद्वीप में ब्रिटिश साम्राज्यवाद, गांधी-नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी और जिन्ना की मुस्लिम लीग के नेतृत्व में औपनिवेशिक पूंजीपति वर्ग द्वारा साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के बड़े पैमाने पर दमन और सांप्रदायिक विभाजन के संदर्भ में विकसित हुआ. इस विभाजन के फलस्वरूप भारतीय उपमहाद्वीप मुस्लिम पाकिस्तान और हिंदू बहुल इंडिया बना. इस तरह के कई आंदोलनों की तरह ही 1870 और 1980 के दशक में बलोची राष्ट्रवादी आंदोलन ने समाजवादी भेष धारण कर लिया और सोवियत संघ से समर्थन की अपील की.

लेकिन जबसे स्टालिनवादी नौकरशाही ने पूंजीवाद की पुनर्स्थापना कर दी और सोवियत संघ को ख़त्म कर दिया, तभी से वो स्पष्ट और खुले तौर पर साम्राज्यवाद की ओर और अधिक झुक गए.

अमेरिका की अगुवाई में साम्राज्यवाद, विश्वयुद्ध और दुनिया का फिर से बंटवारा चाहता है. ऐसी स्थिति में बलोच सत्ताधारी वर्ग के एक हिस्से ने बलोचिस्तान का एक अलग राज्य बनाने का नज़रिया बना लिया है- 'ग्रेटर बलोचिस्तान'. इसमें ईरान का बलोच हिस्सा 'सिस्तान' भी शामिल है. वे ऐसा करके, मज़दूर वर्ग और मेहनतकश आबादी की क़ीमत साम्राज्यवाद से खुद सीधे सौदेबाज़ी करना चाहते हैं.

इसीलिए बलोची राष्ट्रवादियों ने अफ़ग़ानिस्तान पर दो दशक तक चले अमेरिका-नैटो के आक्रमण और क़ब्ज़े का समर्थन किया. जब 2014 में सीपेक की शुरुआत हुई, तो वे अमेरिकी साम्राज्यवाद, उसके अंतरराष्ट्रीय और भारत जैसे क्षेत्रीय सहयोगियों की ओर और झुक गए.

बलोच लिबरेशन आर्मी (बीएलए) जैसे प्रमुख अलगाववादी आतंकवादी ग्रुप सीपेक पर काम कर रहे चीनी इंजीनियरों और मज़दूरों पर लगातार आतंकी हमले कर रहे हैं. दिलचस्प है कि इस सीपेक का वॉशिंगटन और दिल्ली दोनों ज़ोरदार तरीक़े से विरोध करते हैं.

नवंबर 2018 में जब बीएलए ने करांची में चीनी वाणिज्य दूतावास पर हमला किया तो इसकी सीधी ज़िम्मेदारी ली. इसने अपने बयान में कहा, 'इस हमले का मक़सद बिल्कुल साफ़ है: बलोच धरती पर किसी चीनी सैन्य विस्तारवादी प्रयास को हम बर्दाश्त नहीं करेंगे.'

पाकिस्तान के पुराने रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी, भारतीय बुर्जुआज़ी का पक्ष लेते हुए, और साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ हाथ मिलाकर, वे प्रतिक्रियावादी अलगाववादी एजेंडा को आगे बढ़ा रहे हैं. बलोची विद्रोही रोज़ाना आम पंजाबी, हज़ारा और पश्तूनों की हत्याएं कर रहे हैं, जिन्हें वे 'बाहरी प्रवासी' कहते हैं.

साम्राज्यवाद, पाकिस्तानी बुर्जुआज़ी और दक्षिण एशिया के पूरे प्रतिक्रियावादी सांप्रदायिक राज्य तंत्र के ख़िलाफ़, बलोची मज़दूरों और नौजवानों को अपने संघर्ष का आधार स्थाई क्रांति की रणनीति को बनाना होगा. साम्राज्यवाद से असली मुक्ति और दक्षिण एशिया के विभिन्न जातीय-भाषाई और धार्मिक समूहों के बीच असली बराबरी समेत, मेहनतकश आबादी के सबसे बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकार और सामाजिक आकांक्षाएं तभी साकार ले सकती हैं, जब मज़दूर सत्ता के लिए इस इलाक़े में जन गोलबंदी के द्वारा संघर्ष को संगठित किया जाएगा. मज़दूर वर्ग को ग्रामीण मेहनतकश आबादी और उत्पीड़ितों को, बुर्जुआज़ी के सभी धड़ों के ख़िलाफ़ एकजुट करना ही होगा और पूरे इलाक़े में मज़दूरों के बीच एक व्यापक एकता क़ायम करनी होगी. और सामाजिक-आर्थिक जीवन को पुनर्गठित करने और सभी लोगों के सौहार्दपूर्ण और न्यायसंगत विकास के लिए एक रूपरेखा, सोशलिस्ट यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ साउथ एशिया, तैयार करने के मकसद से सामजवादी कार्यक्रम के आधार पर यह एकता क़ायम करनी होगी.

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