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मुख्य सूत्राधार के मोदी नीत गठबंधन में चले जाने के बाद विपक्षी इंडिया गठबंधन डंवाडोल

02 फ़रवरी, 2024 को अंग्रेजी में प्रकाशित Opposition INDIA electoral bloc in shambles after key partner defects to Modi-led alliance लेख का हिंदी अनुवाद है.

बीते रविवार को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी जनता दल यूनाइटेड पार्टी ने कांग्रेस पार्टी नीत इंडिया ग8ठबंधन ब्लॉक को धोखा दिया और उसी दिन हिंदू बर्चस्ववादी बीजेपी नीत एनडीए के साथ फिर से गठबंधन कर लिया.

भारत के तीसरे सबसे अधिक आबादी वाले राज्य बिहार में रविवार को सरकार में बदलाव के साथ ही जेडीयू और बीजेपी के बीच साझेदारी मजबूत हो गई.

पहले, नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दिया, जिसके साथ ही बिहार की महागठबंधन सरकार गिर गई, जिसे ‘इंडिया’ गठबंधन की पार्टियों द्वारा मिल कर बनाया था या उनका पूरा समर्थन हासिल था, जिसमें तीन स्टालिनवादी संसदीय पार्टियां भी शामिल थीं. इसके बाद बीजेपी नियुक्त राज्यपाल के साथ पहले से तय ड्रामे के मुताबिक, नीतीश कुमार ने जेडीयू और बीजेपी के नए गठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. नई व्यवस्था के तहत नीतीश कुमार के पास अब बीजेपी के दो-दो उप मुख्यमंत्री भी हैं.

नीतीश कुमार और जेडीयू एक चौथाई शताब्दी तक धुर दक्षिणपंथी बीजेपी के कभी साथ कभी अलग सहयोगी रहे हैं. नीतीश कुमार का ‘पटलना’ इतना कुख्यात हो चुका है कि उन्हें ‘पलटू राम’ के रूप में ख्याति मिल गई है और रविवार को उनका शपथ ग्रहण, एक दशक में चौथा शपथ ग्रहण था, जिसे उन्होंने कभी बीजेपी नीत एनडीए और कभी विपक्ष के साथ पाला बदलकर अंजाम दिया. हालांकि ये बताना ज़रूरी है कि पिछले 25 सालों से जेडीयू और बीजेपी, बिहार और राष्ट्रीय स्तर पर एनडीए में आपसी साझेदार रहे हैं.

फ़रवरी 2023 में माओवादी पार्टी के 11वें पार्टी सम्मेलन में सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन के महासचिव दिपांकर भट्टाचार्य (मध्य से बाएं) नीतीश कुमार (मध्य से दाएं) के साथ. आरजेडी नेता तेजस्वी यादव (सबसे बाएं) और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता सलमान खुर्शीद (सबसे दाएं). (फ़ोटोः न्यूज़ क्लिक) [Photo: NewsClick]

साल 2013 में नीतीश कुमार बीजेपी की ओर से मोदी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनाए जाने से ख़ासे नाराज़ हो गए थे और जेडीयू ने एनडीए गठबंधन से खुद को अलग कर लिया था क्योंकि मोदी ने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए 2002 में गुजरात का मुस्लिम विरोधी दंगा भड़काया था. एक दशक बाद, मोदी द्वारा बाबरी मस्जिद की जगह हिंदू मंदिर का उद्घाटन कर हिंदू बर्चस्ववादी राज्य बनाने की ओर एक कदम बढ़ाने के महज कुछ दिन बाद ही नीतीश कुमार ने एक बार फिर बीजेपी का दामन थाम लिया.

पिछली गर्मियों में जब ‘इंडिया’ गठबंधन ने आकार ग्रहण किया था, उस समय भी बिहार के मुख्यमंत्री ने ऐसे संकेत दिए थे कि उन्होंने बीजेपी के साथ नए गठबंधन के दरवाज़े पूरी तरह बंद नहीं किए हैं. यही नहीं उन्होंने भारत के पहले बीजेपी/एनडीए प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी के समाधि स्थल पर जाकर उनकी बरसी पर श्रद्धांजलि तक दी.

फिर भी, 2024 के आम चुनावों के लिए आधिकारिक अभियान की शुरुआत से कुछ हफ़्ते पहले ही जेडीयू के दलबदल, यहा ठीक से कहें बीजेपी के पाले में लौटने के फैसले ने ‘इंडिया’ गठबंधन को और कमज़ोर कर दिया है. यह, भारत के दो मुख्य स्टालिनवादी पार्टियों- कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी)- माकपा और सबसे पुरानी लेकिन छोटी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (भाकपा) और माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन की प्रतिक्रियावादी राजनीति को भी उजागर कर दिया है.

इंडिया गठबंधन में जेडीयू की अग्रणी भूमिका

नीतीश कुमार और उनकी जेडीयू पार्टी ‘इंडिया’ गठबंधन के प्रमुख वास्तुकार थे और पिछले सप्ताह तक, जबतक यह बिल्कुल स्पष्ट नहीं हो गया कि वे फिर से पटलने वाले हैं, तबतक उनके पूर्व ‘इंडिया’ गठबंधन, जिसमें फर्जी कम्युनिस्ट पार्टियां, माकपा, भाकपा और सीपीआई (एमएल) लिबरेशन ने उनका खूब प्रचार किया.

‘इंडिया’ गठबंधन के कुछ प्रमुख नेताओं ने तो कुमार को गठबंधन का संयोजक बनाए जाने के लिए लामबंदी भी, जोकि ऐसा पद है जो आज तक आंशिक रूप से खाली पड़ा है क्योंकि आम तौर पर माना जाता है कि इस पद पर बैठने वाला गठबंधन का प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनेगा.

नीतीश कुमार और अब ख़त्म हो चुकी महागठबंधन सरकार की नीतियां, ख़ास तौर पर जाति आधारित आरक्षण को बढ़ाने की इसकी कोशिशों को इंडिया गठबंधन के 'सामाजिक न्याय' के एजेंडा के प्रतीक के तौर पर पेश किया गया था.

दशकों से कांग्रेस पार्टी लगातार कमज़ोर होती जा रही है. लेकिन 2014 तक यह राष्ट्रीय सरकार में भारतीय पूंजीपति वर्ग की चहेती पार्टी थी और इसने 1991 के बाद, अमेरिका के नेतृत्व वाली वैश्विक आर्थिक व्यवस्था में भारत के पूर्ण एकीकरण का रास्ता खोला और भारत-अमेरिका सैन्य रणनीतिक गठबंधन में प्रमुख वास्तुकार के रूप में काम किया.

हालांकि 2014 से ही कांग्रेस को परस्पर जुड़ी दो वजहों से एक बाद एक हार का सामना करना पड़ा है. इसके भ्रष्टाचार और दशकों लंबे दक्षिणपंथी निवेश समर्थक नीतियां लागू करने के कारण कांग्रेस को जन आक्रोष का सामना करना पड़ा. इस बीच पूंजीपति वर्ग ने सार्वजनिक खर्चों में कटौती, निजीकरण और सरकारी नियमों में ढील देने के अपने एजेंडे को निर्दयता से लागू करने और दुनिया में महाशक्ति बनने की अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए हिंदू लौह पुरुष मोदी और बीजेपी को अपना सबसे अच्छा सारथी होने में भरोसा जताया है. इस समय 28 राज्यों में कांग्रेस की महज तीन राज्यों में ही सरकार है.

अपनी राजनीतिक कमज़ोरी की स्वीकारोक्ति में ही कांग्रेस ने 2024 लोकसभा चुनावों के लिए एक बीजेपी विरोधी गठबंधन बनाने के लिए नीतीश कुमार को अगुआई करने की इजाज़त दी. पिछले जून में उन्होंने विपक्षी नेताओं की पटना में एक बैठक बुलाई, जहां से ‘इंडिया’ गठबंधन की औपचारिक शुरुआत हुई.

बिहार महागठबंधन को ‘इंडिया’ गठबंधन का ही एक मॉडल मना गया क्योंकि बीजेपी विरोधी मंच में अलग अलग विचारधाराओं की राजनीतिक ताक़तें शामिल हुई थीं. इसमें जाति आधारित दो शक्तिशाली क्षेत्रीय पार्टियां- जेडीयू, जो पहले बीजेपी/एनडीए के साथ थी, और राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस पार्टी और पारंपरिक 'वाम' पार्टियां- माकपा और भाकपा शामिल थीं. इसमें कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी लेनिनवादी) लिबरेशन भी थी, जोकि एक माओवादी धड़ा है जिसने 2020 में 12 सीटें जीती थीं और अभी भी आरजेडी और कांग्रेस की सहयोगी है.

'जातीय संघर्ष' के लिए नहीं, वर्ग संघर्ष के लिए

पटना में 23 जून 2023 को विपक्ष के सम्मेलन के तुरंत बाद के हफ़्तों में नीतीश कुमार और उनकी महागठबंधन सरकार ने, 1947 में भारत को आज़ादी मिलने के बाद किसी भी राज्य द्वारा कराए जाने वाले पहले व्यापक 'जाति आधारित जनगणना' को पूरा करने पर अपना ध्यान केंद्रित किया. जनगणना, जिसने आबादी को कई जातियों या उप-जातियों में श्रेणीबद्ध किया और फिर जाति के आधार पर एक सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण से आंकड़ों को इकट्ठा किया, इसकी, भाजपा की 'हिंदू एकता' की घोषणाओं के बरक्श मास्टर काउंटर-स्ट्रोक के रूप में स्टालिनवादियों समेत चौतरफा सराहना की गई.

जाति आधारित 'सामाजिक न्याय' का एजेंडा शुरुआत से ही 'इंडिया' गठबंधन के राजनीतिक नारे का केंद्रीय मुद्दा रहा है. इससे उनका आशय भारत की आरक्षण नीति के दायरे को और बढ़ाना है जिसके तहत सरकारी नौकरियों में और विश्वविद्यालयों में कुछ ऐतिहासिक रूप से सताई गई या हाशिए पर रहने वाली जातियों और जनजातीय समूहों को मौका दिया जाता है.

“बांटो और राज करो” की अपनी नीति के हिस्से के तौर पर ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासन द्वारा मुख्य रूप से इजाद किया गया 'आरक्षण' का वास्तविक सामाजिक बराबरी की लड़ाई से कोई लेना देना नहीं है. बल्कि यह भारतीय पूंजीवाद को फलने फूलने देने का एक तंत्र है. बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी और ग़रीबी को लेकर विस्फोटक हो चुके सामाजिक गुस्से और हताशा को सामाजिक दुख के और 'बराबरी' से बंटवारे के लिए उत्पीड़ित लोगों के बीच एक विभाजनकारी संघर्ष में बदलने का यह रास्ता मुहैया कराता है और यह शासक वर्ग के लिए विशेषाधिकार प्राप्त निम्न बुर्जुआ वर्ग के और घेरों को पैदा करने का एक साधन है जो प्रतिद्वंद्वी जाति समूहों के 'नेताओं' और जाति-आधारित राजनीति के विचारकों के रूप में काम करते हैं.

सच्चाई यह है कि इस समय भारत में उस स्तर पर ध्रुवीकरण है जैसा ब्रिटिश राज के चरम पर था. सबसे अमीर एक प्रतिशत भारतीय, देश की 40 प्रतिशत से अधिक संपत्ति के मालिक हैं, जबकि सबसे नीचे की 50 प्रतिशत आबादी, जिसमें 70 करोड़ लोग आते हैं, देश की महज 3 प्रतिशत संपत्ति के मालिक हैं. भारतीय पूंजीपति वर्ग द्वारा उकसाए जाने वाले सभी जातीय, धार्मिक साम्प्रदायिक और क्षेत्रीय विभाजनों के विरोध में मज़दूर वर्ग के संघर्ष की एकता के द्वारा और समाजवाद के लिए संघर्ष में अपने पीछे ग्रामीण मेहनतकश आबादी को लामबंद करके ही, जनता को ग़रीबी से निकालना संभव होगा और उनके बुनियादी सामाजिक और लोकांत्रिक अधिकारों की रक्षा हो सकेगी.

यह बहुत महत्वपूर्ण है कि लॉन्च होने के पांच महीने में, ‘इंडिया’ गठबंधन का मोदी और उनकी बीजेपी के विरोध में इस साझा मंच का एकमात्र मुद्दा “सामाजिक न्याय” के लिए इसकी जाति आधारित नकली अपील ही रही है. बीजेपी के ‘निवेश समर्थक सामाजिक आर्थिक’ एजेंडे से ‘इंडिया’ गठबंधन के दलों की कोई असहमति नहीं है और उनके लिए चीन विरोधी ‘भारत-अमेरिकी वैश्विक रणनीतिक साझेदारी’ भारत की विदेश नीति का प्रमुख अंग बनी रहेगी. यह अहम है लेकिन ताज्जुब की बात नहीं है.

बीजेपी/एनडीए खेमे में जेडीयू की वापसी के साथ ही बीजेपी की हिंदू बर्चस्ववादी अपील के बरक्श ‘इंडिया’ गठबंधन की प्रतिक्रियावादी “जाति संघर्ष” की अपील की धज्जियां उड़ गई हैं और यह पहली बार नहीं हुआ है. हाल के सालों में राजनीतिक सत्ता तंत्र में बीजेपी अपने विरोधियों के ख़िलाफ़ जातिवादी कार्ड खेलने में माहिर साबित हुई है. उसने जातिवादी, जाति आधारित राजनीतिक अपीलों और आरक्षण व्यवस्था के द्वारा विभिन्न दलित और “अन्य पिछड़ी जातीय” समूहों के बीच पैदा असंतोष और विभाजन का फायदा उठाती रही है.

स्टालिनवादियों का रुख़

उम्मीद की मुताबिक ही, स्टालिनवादियों ने बीजेपी नीत एनडीए में जेडीयू के जाने की आक्रोष सहित निंदा की और इसे 'धोखा' और 'अवसरवाद' करार दिया. अपनी खुद के राजनीतिक अंधेपन की स्वीकारोक्ति के रूप में, माकपा ने ‘पीपुल्स डेमोक्रेसी’ के ताज़ा अंक में लिखा, 'दूरंदेशी के तौर पर इंडिया खेमा, (नीतीश कुमार को) संयोजक न बनाकर भाग्यशाली रहा.' सीपीआई एमएल-लिबरेशन की वेबसाइट पर लिखे संपादकीय में लिखा गया, 'नीतीश कुमार का जाना...लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के प्रति भारी विश्वासघात के रूप में ही देखा जा सकता है.'

यह सब उनके खुद के इतिहास को छुपाने की साफ़ कोशिश है. विश्वासघात के लिए नीतीश कुमार को दोषी ठहराना, ‘भेड़ खाने के लिए भेड़िये की निंदा’ करने जैसा है.

सच्चाई यह है कि दशकों तक माकपा, भाकपा और हाल फिलहाल सीपीआई एमएल-लिबरेशन उन्हें “धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक” ताक़त बताती रही, चाहे वो कितने ही दक्षिणपंथी रहे और बहुत कम समय के लिए बीजेपी से अलग रहे. इस तरह उन्होंने नीतीश कुमार और उनकी जेडीयू द्वारा खुद को बार बार “धोखा” दिया है और इस समय वो ‘इंडिया’ चुनावी गठबंधन का हिस्सा हैं जिसमें फासीवादी शिवसेना समेत हर तरह की दक्षिणपंथी पार्टियां मौजूद हैं.

इसके अलावा, यह नहीं भूलना चाहिए कि सीपीआई एमएल-लिबरेशन ने ‘इंडिया’ गठबंधन बनाने में अग्रणी भूमिका ग्रहण करने के लिए जेडीयू के लिए राजनीतिक पृष्ठभूमि बनाने में महत्व भूमिका अदा की. और इस तरह उसने भारतीय पूंजीपति वर्ग को बीजेपी के बरक्श एक वैकल्पिक दक्षिणपंथी सरकार का विकल्प मुहैया कराया. पिछली फ़रवरी में पटना में पार्टी के 11वें सम्मेलन के दौरान इसने बीजेपी को हराने के लिए सभी विपक्षी ताक़तों को लामबंद करने के नाम पर एक आम सभा आयोजित की, जिसमें नीतीश कुमार, आरजेडी नेता तेजस्वी यादव और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता सलमान खुर्शीद सीपीआई एमएल-लिबरेशन के महासचिव दिपांकर भट्टाचार्य के साथ मंच पर दिखे.

यह सब कितना भी बुरा क्यों न हो, यह भारतीय स्टालिनवाद की प्रतिक्रियावादी राजनीति का ताज़ा कड़वा फल है, जिसमें इसका माओवादी संस्करण भी शामिल है. दशकों से स्टालिनवादी पूंजीपति वर्ग के सत्ता तंत्र के अभिन्न हिस्से के तौर पर काम करते रहे, जबकि दूसरी तरफ बीजेपी के हिंदुत्ववादी फासीवादियों के विरोध के नाम पर मज़दूर वर्ग को कांग्रेस पार्टी जैसी बुर्जुआ पार्टियों का पिछलग्गू बना दिया.

पूरी दुनिया की तरह ही, भारत में फासीवाद को सड़ते हुए पूंजीवाद को सहारा देने की कोशिश करके नहीं हराया जा सकता, बल्कि सार्वजनिक खर्च कटौती और साम्राज्यवादी युद्ध के ख़िलाफ़ और सामाजिक बरबारी के लिए मज़दूर वर्ग की स्वतंत्र राजनीतिक लामबंदी के माध्यम से ही उन्हें हराया जा सकता है.

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