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तीसरा कार्यकाल पाने के लिए मोदी का भरोसेमंद भ्रष्ट, दक्षिणपंथी चरित्र वाला विपक्ष

यह हिंदी अनुवाद अंग्रेजी के मूल लेख का है, Modi banks on venal, right-wing character of opposition to secure third term जो मूलतः 18 अप्रैल 2024 को प्रकाशित हुआ था I

भारत में इस शुक्रवार को 100 से अधिक लोकसभा क्षेत्रों में पहले चरण का मतदान होगा, जिसमें दक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडु की 39 सीटें भी शामिल हैं। आम चुनाव सात चरणों में कराए जा रहे हैं। 543 सदस्यीय लोकसभा के चुनावों के नतीजे के साथ ही एक जून को यह प्रक्रिया सम्पन्न हो जाएगी। संसद के निचले लेकिन अधिक शक्तिशाली सदन का गठन चार जून होगा।

ये चुनाव, दशकों तक वर्ग संघर्ष को दबाने वाली स्टालिनवादी संसदीय पार्टियों और उनसे जुड़े ट्रेड यूनियनों समेत संपूर्ण पूंजीवादी राजनीतिक सिस्टम के ख़िलाफ एक नए राजनीतिक रास्ते के लिए मज़दूर वर्ग की तात्कालिक कसमसाहट को चिह्नित करते हैं।

आम चुनावों के लिए चेन्नई में, मंगलवार, 9 अप्रैल 2024 को चुनाव प्रचार करते हुए, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी का चिह्न, कमल, दिखाते हुए। (एपी फ़ोटो) [AP Photo/AP Photo]

ओपिनियन पोल्स का संकेत कि धुर दक्षिणपंथी नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भारतीय जनता पार्टी और इसके नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए) को लगातार तीसरी बार भी पांच साल का कार्यकाल मिल जाएगा।

हाल फिलहाल तक राष्ट्रीय सरकार में भारतीय पूंजीपति वर्ग की चहेती रही कांग्रेस पार्टी, 30 से अधिक दलों के एक जर्जर विपक्षी चुनावी गठबंधन की अगुवाई कर रही है, जिसे इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूसिव अलायंस या इंडिया के नाम से जाना जाता है।

कांग्रेस नेता और उनके सहयोगी, जिसमें स्टालिनवादी भी शामिल हैं, दावा कर रहे हैं कि मोदी और हिंदू बर्चस्ववादी बीजेपी को 'लोकतंत्र को नष्ट' करने से रोकने के लिए इंडिया अलायंस सरकार को चुनना ज़रूरी है।

इंडिया गठबंधन की सरकार 'लोकतंत्र का मज़बूत किला' बनने की झंडाबरदार होने से बहुत दूर, एक दक्षिणपंथी पूंजीवादी सरकार साबित होगी, जो भारतीय शासक वर्ग के एजेंडे के साथ 'निवेशक समर्थक' सुधार और चीन विरोधी 'भारत-अमेरिकी वैश्विक रणनीतिक साझीदारी' को आगे बढ़ाते हुए भारत के मज़दूरों और मेहनतकशों से सीधे टकराव में आ जाएगी।

बीजेपी सरकार भारत के बड़े पूंजीपति घरानों के समर्थन का आनंद ले रही है, जिनमें एशिया के पहले और दूसरे अमीर क्रमशः मुकेश अंबानी और गौतम अडानी हैं और कार्पोरेट मीडिया भी शामिल है। निजीकरण तेज़ करने, श्रम क़ानून और पर्यावरण नियम जितने भी बचे हैं उन्हें रद्दी की टोकरी में डालने और व्यापक विरोध के बावजूद अन्य मज़दूर विरोधी फेरबदल करने के लिए, और विश्व में एक महाशक्ति के रूप में उभरने की अपनी महात्वाकांक्षा पूरा करने के लिए, भारत के बड़े पूंजीपति घराने, मोदी सरकार को अपने सबसे बेहतरीन साधन के रूप में देखते हैं।

सत्ता में 10 साल तक रहने के दौरान मोदी सरकार ने पहले से भी अधिक तानाशाही वाला रवैया अख़्तियार कर लिया है। यह लगातार साम्प्रदायिक उकसावेबाज़ी में संलिप्त रही है, ताकि अपने फासीवादी कार्यकर्ताओं को और एकजुट किया जा सके, बढ़ते सामाजिक गुस्से और हताशा को प्रतिक्रियावादी लाईन पर मोड़ा जा सके और मज़दूर वर्ग को बांटा जा सके। यह लोकतांत्रिक मानदंडों का उल्लंघन करने, संसद को बाईपास करने, मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू एवं कश्मीर के अर्द्ध स्वायत्त दर्ज़े को 2019 में एक संवैधानिक तख्तापलट के माध्यम से छीनने और फर्जी आतंकवादी आरोपों में वामपंथी राजनीतिक विरोधियों को जेल में डालने में और निरंकुश हो चुकी है। एक से एक ऐतिहासिक अपराधों को अंजाम देते हुए जनवरी में इसने एक और राष्ट्रीय तमाशा खड़ा किया और मोदी ने एक हिंदू राष्ट्रवादी मंदिर का उद्घाटन किया जिसे ढहाई गई 16वीं शताब्दी की बाबरी मस्जिद की जगह बनाया गया था। इस मस्जिद को तीन दशक पहले भारतीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन करते हुए बीजेपी द्वारा भड़काए गए हिंदू फासीवादियों ने ढहा दिया था।

बीजेपी का चुनावी प्रचार मोदी के प्रमोशन के ईर्द गिर्द घूमता है जो हिंदू “लौहपुरुष“ और मिथकीय हिंदू ईश्वर भगवान राम के पवित्र भक्त का मिलाजुला रूप है। मोदी, 2002 में हुए मुस्लिम विरोधी गुजरात जनसंहार में लोगों को भड़काने और इसकी अगुवाई करने के कारण पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आए।

भारत की बेरोज़गारी समस्या

जब विपक्षी पार्टियों को 'भ्रष्ट', 'देशद्रोही' और मुस्लिम 'तुष्टिकरण करने वाले' नहीं बोला जाता है तो मोदी और उनके दाहिने हाथ, गृह मंत्री अमित शाह और उनके चापलूस चुनाव प्रचार के दौरान ”दुनिया को पीछे छोड़ने” वाले भारत के आर्थिक विकास और अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारत का डंका बजने की डींगें हांकते हैं।

उनकी बहुत सारी बातें खाली छाती ठोंकने जैसी हैं। हाल के सालों में भारत की विकास दर, मुख्य रूप से निजी निवेश की बजाय राज्यों के घाटे वाले गैर टिकाऊ वित्तीय खर्च के भरोसे है। जबकि खरीदने की क्षमता में समता (पर्चेजिंग पॉवपर पैरिटी) के मामले में भारत अब दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, लेकिन बहुत सारे मामलों में यह बहुत पिछड़ा है। विश्व स्तर पर एकीकृत विनिर्माण, आईटी, जैव-इंजीनियरिंग और अन्य आधुनिक क्षेत्र के साथ, यहां छोटे स्तर के उत्पादन और लंबे समय से चली आ रही पुरानी टेक्नोलॉजी पर आधारित एक विशाल 'अनौपचारिक' अर्थव्यवस्था मौजूद है।

बीजेपी के पिछले एक दशक के शासन में अभी तक भारत की अर्थव्यवस्था में पर्याप्त विकास हुआ है और 33 साल पहले जब भारतीय पूंजीपति वर्ग ने अमेरिका के नेतृत्व वाली विश्व पूंजीवादी व्यवस्था में पूर्ण एकीकरण के पक्ष में, आज़ादी के बाद की अपनी असफल सरकार की अगुवाई वाली विकास रणनीति को अस्वीकार कर दिया था, तबसे से लेकर अबतक अर्थव्यवस्था में काफ़ी विकास हुआ है, लेकिन अभिजात साशक वर्ग और इसके समर्थन में खड़े उच्च मध्य वर्ग ने इसके फ़ायदों पर एकाधिकार जमा लिया है। मौजूदा भारत में सामाजिक असमानता, दक्षिण एशिया में अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन के चरम के दिनों से भी ख़तरनाक स्तर पर पहुंच गई है। साल 2022-23 में शीर्ष एक प्रतिशत आबादी का, भारतीयों की कुल आमदनी में 22.6 प्रतिशत और कुल संपत्ति में 40.1 प्रतिशत का हिस्सा था। कुल आबादी के सबसे ग़रीब 50 प्रतिशत लोगों की भारत की आमदनी में केवल 15 प्रतिशत और कुल संपत्ति में महज 6.4 प्रतिशत हिस्सेदारी थी। भारतीयों की एक बड़ी आबादी ग़रीबी में गुजर बसर करती है और उन्हें डर लगा रहता है कि किसी दुर्घटना (नौकरी जाने, परिवार में बीमारी आदि) की स्थिति उन्हें आर्थिक संकट में डाल देगी। जैसी इस समय हालत है, करोड़ों भारतीय कुपोषण झेल रहे हैं और भयंकर ग़रीबी से बर्बाद हो रहे हैं।

हाल के सालों में “रोज़गार विहीन विकास“ की समस्या और भयंकर हो चुकी है, जिसकी पहली बार पहचान इससे पहले के दशक में हुई थी। सेंटर फ़ॉर मॉनीटरिंग ऑफ़ इंडियन इकोनॉमी के अनुसार, 2023 में भारतीय नौजवानों में बेरोज़गारी दर 45.5 प्रतिशत थी।

खेती में लगी आबादी में वृद्धि, भारत में बेरोज़गारी के बढ़ते संकट का एक और संकेत है। कोविड-19 महामारी की शुरुआत में बिना चेतावनी दिए मोदी सरकार द्वारा लॉकडाउन की घोषणा किए जाने के बाद अपनी जान बचाकर भारत के शहरों से भागे करोड़ों प्रवासी मज़दूरों में एक बड़ी संख्या कभी वापस नहीं लौटी, हालांकि खेती में आमदनी में ठहराव बना हुआ है। एक विकासशील देश में तेज़ पूंजीवादी विकास की स्थितियों में जो उम्मीद की जाती है, उसके ठीक उलट, पिछले पांच सालों में खेती से आजीविका कमाने वाले लोगों की संख्या में 3.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 2018-19 में यह 42.5 प्रतिशत था जो 2022-2023 में बढ़कर 45.8 प्रतिशत हो गया।

चीन के साथ युद्ध की तैयारी कर रहे अमेरिकी साम्राज्यवाद के क्षत्रप की भूमिका में भारत

जहां तक अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत का क़द बढ़ने के बारे में मोदी और भाजपा के दावों का सवाल है, वे दुनिया की भू-राजनीति में नई दिल्ली की निरी प्रतिक्रियावादी भूमिका को आगे बढ़ाने के अलावा और कुछ साबित नहीं करते। पहले की कांग्रेस पार्टी की अगुवाई वाली सरकार द्वारा शुरू की गई भारत-अमेरिकी साझीदारी को और मजबूत करते हुए बीजेपी सरकार ने भारत को, चीन के ख़िलाफ़ चौतरफ़ा सैन्य रणनीतिक आक्रामकता में अमेरिकी साम्राज्यवाद के अग्रिम मोर्चे वाला देश बना डाला है। इन कोशिशों में शामिल है- पूरे एशिया, अफ़्रीका और हिंद महासागर क्षेत्र में चीनी प्रभाव को कम करने के लिए वॉशिंगटन के साथ मिलकर काम करना; अमेरिका और एशिया प्रशांत क्षेत्र में इसके प्रमुख सहयोगियों जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ द्विपक्षीय, त्रिपक्षीय और चतुष्कोणीय सैन्य-रक्षा संबंधों के बढ़ते नेटवर्क में भारत को शामिल करना; भारत को अमेरिकी हथियार उत्पादन का अड्डा बनाना; और वॉशिंगटन की मांग पर कि अमेरिका-चीन युद्ध की स्थिति में भारत अमेरिका की कैसे सैन्य मदद करेगा, इसकी योजना बनाना।

अमेरिकी लॉलीपॉप पर मध्य एशिया में भारतीय व्यावसायिक और भू राजनीतिक संबंधों को बढ़ाने की उम्मीद समेत, भारत के नए “क़द“ को देखते हुए, नई दिल्ली ने, फ़लस्तीन के ख़िलाफ़ इसराइल के जनसंहारक युद्ध के समर्थन में वॉशिंगटन और अन्य पश्चिमी ताक़तों के साथ हाथ मिला लिया है। केवल, महीनों तक चले कत्लेआम के बाद ही, मोदी सरकार ने संयुक्त राष्ट्र में अर्थहीन संघर्ष विराम के पक्ष में वोट किया।

मज़दूर वर्ग और गांव के ग़रीबों में व्यापक सामाजिक असंतोष के कई संकेत हैं। इसमें कई लंबी हड़तालें शामिल हैं, उदाहरण के लिए, 2022-23 में महाराष्ट्र स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कार्पोरेशन के कर्मचारियों की हड़ताल।

बीजेपी के लोकप्रिय सपोर्ट की ताक़त के बारे में उनके सभी दावों के बावजूद, मोदी, शाह और बीजेपी स्पष्ट रूप से अचानक व्यापक विरोध के भड़कने की संभावना से डरे हुए हैं। इसलिए उन्होंने फ़रवरी और मार्च में दिल्ली को जा रहे किसानों को रोकने के लिए दसियों हज़ार सुरक्षा बलों की तैनाती की और पुलिसिया स्टेट के तौर तरीक़े अपनाए।

वे जानते हैं कि अपने राजनीतिक दबदबे को बनाए रखने में धनबल, बाहुबल, चापलूस मीडिया और उन्मांदी सांप्रदायिकता और अन्य प्रकार की ड्रामेबाज़ी (डेमागॉगी) और तीन तिकड़म का बहुत बड़ा हाथ है, यही कारण है कि बीजेपी अपने पूंजीवादी राजनीतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ हर हथकंडे अपनाने को बेचैन है। इसी में एक मामला है अरविंद केजरीवाल का भविष्य क्या होगा। दिल्ली के मुख्यमंत्री और इंडिया अलायंस की एक प्रमुख सहयोगी पार्टी, आम आदमी पार्टी के शीर्ष नेता केजरीवाल, राजनीतिक मंशा से प्रेरित फ़र्ज़ी भ्रष्टाचार के मामलों में 21 मार्च से ही जेल में हैं।

इंडिया अलायंसः मज़दूर वर्ग के एक लिए दक्षिणपंथी धोखा

भारत की मेहनतकश जनता और इसके लोकतांत्रिक और सामाजिक आकांक्षाओं के प्रति अपने दुश्मनाना बर्ताव को लेकर मोदी सरकार का डर ज़ाहिर है और विपक्षी पार्टियां भी इससे भयभीत हैं।

जब भी ये विपक्षी पार्टियां राष्ट्रीय या राज्य स्तर पर सत्ता में रहीं, जिनमें कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया या सीपीआई और इसी से निकली स्टालिवादी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी) या सीपीएम शामिल हैं, इन सभी ने ”निवेशक समर्थक” नीतियों को ही लागू किया।

और इसी तरह इन सभी ने भारत द्वारा वॉशिंगटन को गले लगाने और भारतीय विदेश नीति को चीन विरोधी भारत-अमेरिका गठबंधन की ओर मोड़ने में मिलीभगत की है।

कांग्रेस पार्टी, जो पीढ़ियों से नेहरू-गांधी परिवार द्वारा वंशानुगत रूप से चलाई जाती रही है, जबसे 2014 में सत्ता से बेदखल हुई है, एक के बाद एक चुनावी हार का सामना कर रही है। सत्ता में आने के बाद बीजेपी, कांग्रेस और बड़े उद्योगपतियों के भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ व्यापक विरोध का फायदा उठाने में क़ामयाब रही थी। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण है कि, बढ़ती बेरोज़गारी, आर्थिक असुरक्षा और सामाजिक ग़ैरबराबरी के प्रति गुस्से और नव उदारवादी “सुधार“ को मानवीय चेहरा देने के कांग्रेस के दावे की असफलता से बीजेपी को फायदा हुआ है।

इंडिया गठबंधन इस व्यापक गुस्से को लेकर बहुत संभल कर अपील कर रहा है, ख़ासकर रोज़गार संकट को लेकर, और इसके सदस्य दल रोज़गार सृजन को वरीयता देने और मज़दूरी बढ़ाने को लेकर विभिन्न तरह के वायदे कर रहे हैं। (इंडिया गठबंधन का कोई प्लेटफ़ॉर्म नहीं है।)

इंडिया गठबंधन के घटल दलों के दक्षिणपंथी रिकॉर्ड को देखते हुए, अगर ये अपीलें लोगों का ध्यान खींचने में फ़ेल जाएं तो हैरानी नहीं होगी।

असल में ये दगाबाज़ हैं और यह उनकी करतूतों में दिखता है। कांग्रेस पार्टी के मेनिफ़ेस्टो को लेते हैं। यह, सार्वजनिक क्षेत्र और सरकारी कंपनियों (पब्लिक सेक्टर यूनिट-पीएसयू) में ठेका प्रथा को ख़त्म करने, बीजेपी द्वारा किए गए श्रम क़ानूनों में दक्षिणपंथी ”सुधार” को रद्द करने और किसानों को उनकी फसल पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने जैसे वायदे करता है। जबकि बड़े उद्योगों का समर्थन हासिल करने के लिए कई वायदे भी करता है। इनमें भाजपा के अत्यधिक 'नियंत्रण' को समाप्त करके व्यवसाय के लिए 'स्वस्थ, निडर और भरोसेमंद माहौल' बहाल करना; सैन्य खर्च बढ़ाना; और विवादित सीमा पर चीनी दबाव के आगे झुकने की मोदी की कथित नीति को समाप्त करना शामिल है।

सेक्युलरिज़्म की रक्षा के इंडिया गठबंधन के दावे भी कम झूठे नहीं हैं। दशकों से कांग्रेस पार्टी ने हिंदू दक्षिणपंथियों के साथ तालमेल और मिलीभगत की है, यहां तक कि मीडिया के एक वर्ग में उसने अपनी नीतियों को ”नरम हिंदुत्व” के रूप में प्रचारित कराया। लेकिन इंडिया गठबंधन बनाने और उसकी अगुवाई करने वाली पार्टियों के कोर ग्रुप में फ़ासीवादी, धुर हिंदुत्वादी और बीजेपी की सहयोगी रह चुकी शिव सेना (यूबीटी) का होना, 'सेक्युलरिज़्म' को बचाने के इसके दावे की पोल खोल देता है।

माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन समेत स्टालिनवादी सीपीएम और सीपीआई ने प्रतिक्रियावादी इंडिया गठबंधन को एक 'प्रगतिशील' चेहरा देने की कोशिश में मुख्य भूमिका निभाई है। दशकों तक, स्टालिनवादी और उनके लेफ़्ट फ़्रंट ने वर्ग संघर्ष को दबाया है और मज़दूर वर्ग को, बड़े उद्योगों की चहेती कांग्रेस और कई सारी दक्षिणपंथी जातिवादी और क्षेत्रीय-सांप्रदायिक पार्टियों के पीछे खड़ा करने का काम किया है। नतीजा ये है कि बीजेपी और इसके हिंदू फ़ासीवादी सहयोगी पहले से भी अधिक ताक़तवर हो गए हैं।

वैश्विक पूंजीवादी संकट को देखते हुए, मेहतनकश लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा की केवल टिकाऊ रणनीति वही हो सकती है जो वर्ग संघर्ष और ट्राट्स्की की रणनीति और परमानेंट रिवोल्यूशन के कार्यक्रम पर आधारित हो।

भारतीय मज़दूरों को अपने संघर्षों को एकजुट करना होगा और पूंजीपति वर्ग के सभी राजनीतिक प्रतिनिधियों के विरोध में, मज़दूरों की सत्ता और दुनिया भर के मज़दूरों के साथ मिलकर भारतीय और विश्व अर्थव्यवस्था के समाजवादी पुनर्गठन की लड़ाई में, ग्रामीण मेहनतकशों को अपने साथ लाना होगा।

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